इस पोस्ट में हम आपको रस की उदाहरण (Ras Ki Paribhasha) , प्रकार, परिभाषा, अर्थ, भेद के बारे में पूरी जानकारी बता रहे हैं। तो चलिए जानते हैं: Ras in Hindi.
रस (Ras) क्या है? अथवा रस शब्द की परिभाषा?
कविता, कहानी, उपन्यास आदि पढ़कर अथवा सुनकर या किसी अभिनय को देखकर जब चित्त आन्नद में तन्मय हो जाता है है तो उस परिणत को रस कहते है | पाठक या श्रोता के हदय में स्थित स्थायी भाव ही विभाव आदि से संयुक्त होकर रस रूप में परिणत हो जाता है |
रस शब्द की व्युत्पति?
संस्कृत में रस शब्द की व्युत्पति’ रसस्यते असो इति रसा:’ के रूप में की गई है अर्थात् ‘जो चखा जाए’ या ‘जिसका आस्वादन किया जाए’ अथवा ‘जिससे आनंद की प्राप्ति हो’ वही रस है| सर्वप्रथम भरतमुनि ने अपने ‘नाटयशास्त्र’ में रस के स्वरूप को स्पष्ट किया था | रस की निष्पत्ति के सम्बन्ध में उन्होंने लिखा है – “विभावानुभावव्यभिचारिसंयोगाद्रसनिष्पत्ति:” अर्थात् विभूव, अनुभाव, व्यभिचारी भाव (संचारी भाव) के संयोग से रस की निष्पति होती है | इस प्रकार काव्य पढ़ने, सुनने या अभिनय देखने पर विभाव आदि के संयोग से जिस आनंद की प्राप्ति होती है उसे ही रस कहा जाता है|
रस का अर्थ?
रस का शाब्दिक अर्थ होता है ‘आन्नद’ | साधारणत: सामान्य भाषा में रस का अर्थ स्वाद से लिया जाता है परन्तु साहित्य में रस का आशय उस आनंद से लिया जाता है जो काव्य को पढ़ने सुनने अथवा अभिनय देखने से मन में उत्पन्न होता है |
काव्य में रस का स्थान?
काव्य में रस का वही स्थान है जो शरीर में आत्मा का है | जिस प्रकार आत्मा के अभाव में प्राणी का अस्तित्व सम्भव नही है उसी प्रकार रसहीन कथन को काव्य नहीं कहा जा सकता है |
नोट – रस को काव्य की आत्मा अथवा प्राण तत्व माना जाता है |
रस के अंग या अवयव?
रस के प्रमुख चार अंग या अवयव है जो निम्नलिखित प्रकार है –
- स्थायी भाव
- विभाव
- अनुभाव
- संचारी अथवा व्यभिचारी भाव
रस के इन विभिन्न अंगो का विवेचन इस प्रकार किया जा सकता है |
स्थायी भाव की परिभाषा एवं अर्थ
मनुष्य के हृदय में हर समय रहने वाले भाव स्थायी भाव कहलाते है | ये सुप्त अवस्था में रहते है किन्तु उचित अवसर पर जाग्रत एवं पुष्ट होकर ये रस में परिणत हो जाते है |
स्थायी भाव एवं उनसे सम्बन्धित रस
स्थायी भाव का मतलब है प्रधान भाव | प्रधान भाव वही हो सकता है जो रस की अवस्था तक पहुँचता है | काव्य या नाटक में एक स्थायी भाव शुरू से अंत तक होता है | स्थायी भावो की संख्या 9 मानी गई है | स्थायी भाव ही रस का आधार है | एक रस के मूल में एक स्थायी भाव रहता है | अतएव रसों की संख्या भी 9 है, जिन्हें ‘नवरस‘ कहा जाता है | मूलतः नवरस ही माने जाते है किन्तु बाद के कुछ आचार्यो ने 2 और भावो (वात्सल्य व भगवद् विषयक रति) को स्थायी भाव की मान्यता दी | इस प्रकार स्थायी भावो की संख्या 11 निर्धारित की गई है | ग्यारह स्थायी भाव और इनसे सम्बंधित रसों के नाम इस प्रकार है |
स्थायी भाव | रस |
रति / प्रेम | श्रृंगार |
शोक | करुण |
उत्साह | वीर |
आश्चर्य / विस्मय | अद्भुत |
हास | हास्य |
क्रोध | रौद्र |
भय | भयानक |
जुगुप्सा (ग्लानि) | बीभत्स |
निर्वेद (वैराग्य) | शान्त |
वत्सलता | वात्सल्य |
देव – विषयक रति (अनुराग) | भक्ति |
नोट–
- भरतमुनि को ‘काव्यशास्त्र का प्रथम आचार्य‘ माना जाता है |
- सर्वप्रथम आचार्य मुनि ने अपने ग्रन्थ ‘नाट्यशास्त्र’ में रस का विवेचन किया | इसलिए उन्हें रस संप्रदाय का प्रवर्तक भी माना जाता है |
प्रत्येक स्थायी भाव का संक्षिप्त परिचय अग्रलिखित है |
(1) रति (प्रेम) — स्त्री – पुरुष की एक – दूसरे के प्रति उत्पन्न प्रेम नाम चित्तवृत्ति को रति (प्रेम) स्थायी भाव कहते है |
(2) शोक — प्रिय वस्तु (जैसे – इष्टजन, वैभव आदि) के नाश इत्यादि के कारण उत्पन्न होने वाली हृदय की व्याकुलता को शोक कहते है |
(3) उत्साह — मन की वह उल्लासपूर्ण वृत्ति, जिसके द्वारा मनुष्य तेजी के साथ किसी कार्य को करने में लग जाता है उत्साह कहलाती है | इसकी अभिव्यक्ति शक्ति शौर्य एवं धैर्य के प्रदर्शन में होती है |
(4) आश्चर्य (विस्मय) — अलौकिक वस्तु को देखने सुनने या स्मरण करने से उत्पन्न मनोविकार आश्चर्य कहलाता है |
(5) हास — रूप, वाणी एवं अंगो के विकारों को देखने से चित्त का विकसित होना हास कहलाता है |
(6) क्रोध — असाधारण अपराध, विवाद, उत्तेजनापूर्ण अपमान आदि से उत्पन्न मनोविकार को कोध्र कहते है |
(7) भय — हिंसक जन्तुओ के दर्शन, अपराध, भयंकर शब्द, विकृत चेष्टा और रौद्र आकृति द्वारा उत्पन्न मन की व्याकुलता को ही भय स्थायी भाव के रूप में परिभाषित किया जाता है |
(8) जुगुप्सा (ग्लानि) — किसी अरुचिकर या मन के प्रतिकूल वस्तु को देखने अथवा उसकी कल्पना करने से जो भाव उत्पन्न होता है, वह जुगुप्सा कहलाता है |
(9) निर्वेद (वैराग्य) — सांसारिक विषयों के प्रति वैराग्य की उत्पत्ति निर्वेद कहलाती है |
(10) वात्सलता — माता – पिता का संतान के प्रति अथवा भाई – बहन का परस्पर सात्त्विक प्रेम ही वात्सलता कहलाता है |
(11) देव – विषयक रति — ईश्वर में परम अनुरक्ति ही देव – विषयक रति कहलाती है |
रस-निष्पत्ति में स्थायी भाव का महत्त्व —
स्थायी भाव ही परिपक्व होकर रस – दशा को प्राप्त होते है इसलिए इस निष्पत्ति में स्थायी भाव का सबसे अधिक महत्त्व है | अन्य सभी भाव और कार्य स्थायी भाव की पुष्टि के लिए ही होते है |
विभाव की परिभाषा एवं अर्थ ?
जो कारण (व्यक्ति, पदार्थ आदि) दूसरे व्यक्ति के हृदय में स्थायी भाव को जाग्रत तथा उद्दीप्त करते है उन्हें विभाव कहते है |
विभाव के भेद अथवा प्रकार?
विभाव आश्रय के ह्रदय में भावो को जाग्रत करके उन्हें उद्दीप्त भी करते है | इस आधार पर विभाव के नि०लि० दो भेद है |
- आलम्बन विभाव
- उद्दीपन विभाव
(1) आलम्बन विभाव की परिभाषा — जिस व्यक्ति अथवा वस्तु के कारण किसी व्यक्ति में कोई भाव जाग्रत होता है उस व्यक्ति अथवा वस्तु को उस भाव का आलम्बन विभाव कहते है |
उदाहारण — यदि किसी व्यक्ति के मन में साँप को देखकर ‘भय’ नामक स्थायी भाव जाग जाए तो वहाँ ‘साँप’ उस व्यक्ति में उत्पन्न ‘भय’ नामक स्थायी भाव का आलम्बन विभाव होगा |
उद्दीपन विभाव की परिभाषा
व्यक्ति के ह्रदय में जाग्रत स्थायी भावो को अधिकाधिक उद्दीपन तथा तीव्र करने वाला उद्दीपन विभाव कहलाता है | आलम्बन की चेष्ठा तथा देशकाल आदि को उद्दीपन विभाव माना जाता है |
उदाहारण — साँप की फुफकार आदि |
रस निष्पत्ति में विभाव का महत्त्व?
हमारे मन में रहने वाले स्थायी भावो को जाग्रत करने तथा उद्दीप्त करने का कार्य विभाव द्वारा होता है | जाग्रत तथा उद्दीप्त स्थायी भाव ही रस का रूप प्राप्त करते है | इस प्रकार रस निष्पत्ति में विभाव का अत्यधिक महत्त्व है |
अनुभाव की परिभाषा एवं अर्थ?
आश्रय की चेष्टाओं अथवा रस की उत्पत्ति को पुष्ट करने वाले वे भाव जो विभाव के बाद उत्पन्न होते है अनुभाव कहलाते है | भावो को सूचना देने के कारण ये भावो के ‘अनु’ अर्थात् पश्चातवर्ती माने जाते है |
अथवा
मानव मन में स्थायी भाव के जाग्रत होने पर मनुष्य में कुछ शारीरिक चेष्टाएँ उत्पन्न होती है जिन्हें अनुभाव कहा जाता है |
उदाहरण —
साँप को देखकर व्यक्ति चिल्लाने या भागने लगे तो उसकी यह क्रिया अनुभाव कहलाएगी |
अनुभाव के भेद अथवा प्रकार
अनुभावो के मुख्य रूप से चार भेद किये गए है —
- कायिक अनुभाव
- मानसिक अनुभाव
- आहार्य अनुभाव
- सात्विक अनुभाव
(1) कायिक अनुभाव — प्राय: शरीर की कृत्रिम चेष्टा को कायिक अनुभाव कहा जाता है |
उदाहरण — दौड़ना, कूदना, कटाक्ष करना, हाथ अथवा नेत्र से संकेत करना आदि |
(2) मानसिक अनुभाव — ह्रदय की भावना के अनुकूल मन में हर्ष – विषाद, आनंद अथवा मस्तिष्क में तनाव आदि उत्पन्न होने को मानसिक अनुभाव कहते है |
(3) आहार्य अनुभाव — मन के भावो के अनुसार अलग – अलग प्रकार की कृत्रिम बेश – रचना करने को आहार्य अनुभाव कहते है |
(4) सात्विक अनुभाव — हेमचन्द्र के अनुसार ‘सत्व’ का अर्थ है ‘प्राण’ | स्थायी भाव ही प्राण तक पहुँचकर ‘सात्त्विक अनुभाव’ का रूप धारण कर लेते है |
अर्थात्
अन्त:करण के विशेष धर्म सत्व से उत्पन्न ऐसे शारीरिक या अंग – विकार को ‘सात्त्विक अनुभाव’ कहते है जिससे ह्रदय में उत्पन्न रस या भाव का पता चलता है | इस प्रकार के शारीरिक विकारों पर आश्रय का कोई नियन्त्रण नहीं होता | ये मनुष्य में स्थायी भाव उद्दीप्त होते ही स्वत: उत्पन्न हो जाते है |
सात्त्विक अनुभाव के भेद अथवा प्रकार
सात्त्विक अनुभाव भी आठ प्रकार के होते है निम्नलिखित इस प्रकार है —
- स्तम्भ:
- स्वेद:
- रोमांच:
- स्वरभंग
- कम्प
- विवर्णता
- अश्रु
- प्रलय
रस निष्पत्ति में अनुभावों का महत्त्व
स्थायी भाव जाग्रत और उद्दीप्त होकर रस-दशा को प्राप्त होते है | अनुभावों के द्वारा इस बात का ज्ञान होता है कि आश्रय के ह्रदय में रस की निष्पत्ति हो रही है अथवा नहीं | इसके साथ ही अनुभावो का चित्रण काव्य को उत्कृष्टता प्रदान करता है |
संचारी अथवा व्यभिचारी भाव की परिभाषा एवं अर्थ
आश्रय के मन में उत्पन्न होने वाले अस्थिर मनोविकारो को संचारी अथवा व्यभिचारीभाव कहते है | ये मनोविकार पानी के बुलबुलों की भाँति बनते और मिटते रहते है | जबकि स्थायी भाव अन्त तक बने रहते है |
उदाहरण — जिस प्रकार समुद्र में लहरे उत्पन्न होती है और उसी में विलीन हो जाती है उसी प्रकार स्थायी भाव में संचारी भाव उत्पन्न और विलीन होते रहते है |
संचारी अथवा व्यभिचारी भावो के भेद अथवा प्रकार
आचार्यो ने संचारी भावों की संख्या 33 निश्चित की है जिनके नाम इस प्रकार है —
- निर्वेद
- आवेग
- दैन्य
- श्रम
- मद
- जड़ता
- उग्रता
- मोह
- विबोध
- स्वप्न
- अपस्मार
- गर्व
- मरण
- अलसता
- अमर्ष
- निद्रा
- अवहित्था
- उत्सुकता अथवा औत्सुक्य
- उन्माद
- शंका
- स्मृति
- मति
- व्याधि
- सन्त्रास
- लज्जा
- हर्ष
- असूया
- विषाद
- धृति
- चपलता
- ग्लानि
- चिन्ता
- वितर्क
रस निष्पत्ति में संचारी अथवा व्यभिचारी भावों का महत्त्व
संचारी भाव स्थायी भाव को पुष्ट करते है | वो स्थायी भावो को इस योग्य बनाते है कि उनका अस्वादन किया जा सके | यद्यपि वे स्थायी भावो को पुष्ट कर स्वंय समाप्त हो जाते है तथापि ये स्थायी भाव को गति एवं व्यापकता प्रदान करते है |
रसों का सामान्य परिचय
रस के प्रकार अथवा भेद—
रस के विभिन्न भेदों का परिचय अग्र लिखित है —
- श्रंगार रस
- हास्य रस
- करूण रस
- वीर रस
- रौद्र रस
- भयानक रस
- बीभत्स रस
- अद्भुत रस
- शांत रस
- वात्सल रस
- भक्ति रस
(1) शृंगार रस – Shringar Ras in hindi
शृंगार रस की परिभाषा एवं अर्थ?
जहाँ काव्य में रति नामक स्थायी भाव, विभाव,अनुभाव और संचारी भाव से पुष्ट होकर रस में परिणत होता है वहाँ श्रृंगार रस होता है |
अथवा
नायक और नायिका के मन में संस्कार रूप में स्थित रति या प्रेम जब रस की अवस्था को पहुँचकर अस्वादन के योग्य हो जाता है तो वह श्रृंगार रस कहलाता है |
श्रृंगार रस का उदाहरण —
ऊधो मोहिं ब्रज बिसरत नाहीं |
हंससुता की सुन्दर कगरी और द्रुमन की छाँही ||
श्रृंगार रस के भेद अथवा प्रकार — श्रृंगार रस के दो भेद है | इनका विवेचन निम्नलिखित है|
- संयोग श्रृंगार या संभोग श्रृंगार
- वियोग श्रृंगार या विप्रलम्भ श्रृंगार
(i) संयोग श्रृंगार रस (संभोग श्रृंगार) की परिभाषा एवं अर्थ—
संयोग का अर्थ है — सुख प्राप्ति का अनुभव करना | काव्य में जहाँ नायक और नायिका के मिलाने का वर्णन हो वहाँ संयोग श्रृंगार रस या संभोग श्रृंगार रस होता है |
संयोग श्रृंगार रस का उदाहरण —
बतरस लालच लाल की, मुरली धरी लुकाय |
सोहै कहे, भौहनि हंसे, दैन कहै नटि जाय ||
अथवा
लता ओट सब सखिन लखाये, स्यामल गौर किशोर सुहाये |
देख रूप लोचन ललचाने, हरषे जन निज – निधि पहचाने ||
अथवा
कहत, नटत, रीझत, खिझत, मिलत, खिलत लजियात |
भरे भौन में करत है, नैननु ही सौं बात ||
(ii) वियोग श्रृंगार रस या विप्रलम्भ श्रृंगार रस की परिभाषा एवं अर्थ —
जहाँ परस्पर अनुरक्त नायक और नायिका के वियोग तथा मिलन में अवरोध अथवा पूर्व मिलन का स्मरण हो वहाँ वियोग श्रृंगार या विप्रलम्भ श्रृंगार होता है |
वियोग श्रृंगार (विप्रलम्भ श्रृंगार) रस का उदाहरण—
निसिदिन बरसत नयन हमारे
सदा रहति पावस ऋतु हम पै जब ते स्याम सिधारे |
अथवा
हे खग-मृग, हे मधुकर श्रेनी |
तुम्ह देखी, सीता मृग नयनी ||
नोट:-
- श्रृंगार रस का स्थायी भाव रति या प्रेम होता है|
- श्रृंगार रस को रसराज / रसपति भी कहा जाता है |
(2) हास रस – Hasya Ras in Hindi
हास रस की परिभाषा एवं अर्थ — काव्य में किसी की विचित्र वेश – भूषा, आकृति, चेष्टा आदि हँसी उत्पन्न करने कार्यो का वर्णन हास रस कहलाता है | तथा यही हास जब विभाव अनुभाव तथा संचारी भाव से पुष्ट हो जाता है तो उसे हास रस कहा जाता है |
हास रस का उदाहरण—
मुरली में मोहन बसे, गाजर में गणेश |
कृष्ण करेला में बसे, रक्षा करे महेश ||
अथवा
तंबूरा ले मंच पर बैठे प्रेमप्रताप,
साज मिले पंद्रह मिनट, घण्टा भर आलाप |
घण्टा भर आलाप, राग में मारा गोता,
धीरे – धीरे खिसक चुके थे सारे श्रोता |
विशेष :— हास रस का स्थायी भाव हास्य होता है |
(3) करुण रस – Karun Ras in Hindi
करुण रस की परिभाषा एवं अर्थ — किसी प्रिय वस्तु अथवा प्रिय व्यक्ति आदि के अनिष्ट की अशंका या इनके विनाश से ह्रदय में जो क्षोभ या दुःख उत्पन्न होता है उसे करुण रस कहते है |
अथवा
बन्धु – वियोग, बन्धु – विनाश, द्रव्यनाश और प्रियतम के सदैव के लिए बिछुड़ जाने से करुण रस उत्पन्न होता है | यद्यपि दुःख का अनुभव वियोग श्रृंगार में भी होता है तथापि वहाँ मिलने की आशा भी बंधी रहती है परन्तु जहाँ पर मिलने की आशा पूरी तरह समाप्त हो जाती है वहाँ करुण रस होता है |
करुण रस का उदहारण —
अभी तो मुकुट बँधा था माथ,
हुए कल ही हल्दी के हाथ,
खुले भी न थे लाज के बोल, खिले थे चुम्बन शून्य कपोल,
हाय रुक गया यहीं संसार,
बना सिन्दूर अनल अंगार,
वातहत लतिका वह सुकुमार,
पड़ी है छिन्नाधार !
अथवा
प्रिय पति वह मेरा प्राण प्यारा कहाँ है?
दुःख – जलनिधि – डूबी का सहारा कहाँ है?
अथवा
ब्रज के बिरही लोग दुखारे |
विशेष :— करुण रस का स्थायी भाव शोक होता है |
(4) वीर रस – Veer Ras in Hindi
बीर रस की परिभाषा एवं अर्थ — युध्द अथवा किसी कठिन कार्य को करने के लिए हृदय में जो उत्साह ज्रागत होता है उसे वीर रस कहते है |
वीर रस का उदाहरण —
वीर तुम बढ़े चलो, धीर तुम बढ़े चलो |
सामने पहाड़ हो, सिंह की दहाड़ हो ||
तुम निडर डटे रहो, मार्ग में रुको नहीं |
तुम कभी रुको नहीं, तुम कभी झुको नहीं ||
अथवा
मैं सत्य कहता हूँ सखे
सुकुमार मत जानो मुझे |
यमराज से भी युद्ध में
प्रस्तुत सदा मानो मुझे |
है और की बात क्या,
गर्व करता है नहीं,
मामा तथा निज तात से
समर में डरता नहीं ||
विशेष :— वीर रस का स्थायी भाव उत्साह होता है |
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के शब्दों में उत्साह की परिभाषा —
“जिन कर्मो में किसी प्रकार का कष्ट या हानि सहने का साहस अपेक्षित होता है, उन सबके प्रति उत्कष्ठापूर्ण आनंद, उत्साह के अन्तर्गत लिया जाता है यह उत्साह दान, धर्म दया, युध्द आदि किसी भी क्षेत्र में भी हो सकता है |”
इस परिभाषा के आधार पर चार प्रकार के वीर होते है —
- युध्दवीर
- दानवीर
- धर्मवीर
- दयावीर
(5) रौद्र रस – Raudra Ras in Hindi
रौद्र रस की परिभाषा एवं अर्थ — शत्रु या दुष्ट अत्याचारी द्वारा किये गये अत्याचारों को देखकर अथवा गुरुजनों की निन्दा सुनकर चित्तमय एक प्रकार का क्रोध उत्पन्न करता है जिसे रौद्र रस कहते है |
रौद्र रस का उदाहरण —
उस काल मारे क्रोध के तन काँपने उनका लगा |
मानो हवा के जोर से सोता हुआ सागर जगा ||
अथवा
श्रीकृष्ण के सुन वचन अर्जुन क्षोभ से जलने लगे |
सब शील अपना भूल कर करतल युगल मलने लगे ||
संसार देखे अब हमारे शत्रु रण में मृत पडे |
करते हुए यह घोषणा वे हो गए उठ कर खड़े ||
विशेष :— रौद्र रस का स्थायी भाव क्रोध होता है |
(6) भयानक रस – Bhayanak Ras in Hindi
भयानक रस की परिभाषा एवं अर्थ — किसी भयानक वस्तु या जीव को देखकर भावी दुःख की अशंका से हृदय में जो भाव उत्पन्न होता है उसे भय कहते है | इस भय के जाग्रत और उद्दीप्त होने पर जिस रस की उत्पत्ति होती है उसे भयानक रस कहते है |
भयानक रस का उदाहरण —
उधर गरजती सिन्धु लहरियाँ कुटिल काल के जालों-सी |
चली आ रही फेन उगलती फेन फैलाये व्यालो – सी ||
अथवा
लंका की सेना तो, कपि के गर्जन से रव काँप गई |
हनुमान के भीषण दर्शन से विनाश ही भाँप गई ||
अथवा
एक ओर अजगरहि लखि, एक ओर मृगराय |
बिकल बढोही बीच ही, परयो मूच्छा खाय ||
विशेष :— भयानक रस का स्थायी भाव भय होता है |
(7) बीभत्स रस – Vibhats Ras in Hindi
बीभत्स रस की परिभाषा एवं अर्थ — घृणित वस्तु अथवा सड़ी हुई लाशें दुर्गन्ध आदि देखकर या अनुभव करके ह्रदय में घृणा उत्पन्न होती है तो उसे बीभत्स रस कहते है | तात्पर्य यह है कि बीभत्स रस के लिए घृणा और जुगुप्सा आवश्यक है |
बीभत्स रस का उदाहरण (vibhats ras ke udaharan) —
धर में लासे, बाहर लासे
जन – पथ पर पर, सड़ती लाशें |
आँखे न्रिशंस यह, दृश्य देख
मुद जाती घुटती है साँसे ||
अथवा
सर पर बैठो काग, आँखि दोउ खात निकारत |
खीचत जीभहिं स्यार, अतिहि आनन्द उर धारत ||
गिध्द जाँघ कह खोदि – खोदि के मांस उचारत |
स्वान आँगुरिन कोटि – कोटि के खान बिचारत ||
अथवा
जहँ – तहँ मज्जा माँस रुचिर लखि परत बगारे |
जित – जित छिटके हाड़, सेत कहुं -कहुं रतनारे ||
विशेष :— बीभत्स रस का स्थायी भाव घृणा या जुगुप्सा / ग्लानि होता है |
(8) अद्भुत रस – Adbhut Ras in Hindi
अद्भुत रस की परिभाषा एवं अर्थ — किसी भयानक अथवा असाधारण वस्तु, व्यक्ति अथवा घटना को देखकर हृदय में कुतुहल विशेष प्रकार का आश्चर्य भाव उत्पन्न होता है इन्ही भावो के विकसित रूप को अद्भुत रस कहते है |
अद्भुत रस का उदाहरण —
इहाँ उहाँ दुइ बालक देखा |
मति भ्रम मोरि कि आन बिसेखा ||
अथवा
देखरावा मातहिं निज अद्भुत रूप अखण्ड |
रोम – रोम प्रति लागे कोटि – कोटि ब्रह्मण्ड ||
विशेष :— अद्भुत रस का स्थायी भाव आश्चर्य / विस्मय होता है |
(9) शान्त रस – Shant Ras in hindi
शान्त रस की परिभाषा एवं अर्थ — तत्व ज्ञान की प्राप्ति अथवा संसार से वैराग्य होने पर शान्त रस उत्पन्ति होती है | जहाँ दुःख है न सुख, न द्वेष है, न राग और न कोई इच्छा है ऐसी मन:स्थिति में उत्पन्न रस को मुनियों में शान्त रस कहा है |
शान्त रस का उदाहरण —
उदाहरण -1
मन रे तन कागद का पुतला |
लागै बूँद बिनसि जाय छिन में, गरब करै क्या इतना ||
उदाहरण -2
लंबा मारग दूरि घर, बिकट पंथ बहुमार |
कहौ संतो क्यूँ पाइए, दुर्लभ हरि दीदार ||
उदाहरण -3
जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि हैं मैं नाँहिं।
सब अँधियारा मिटि गया, जब दीपक देख्या माँहि॥
विशेष :— शान्त रस का स्थायी भाव शम / निर्वेद (वैराग्य/वीतराग) होता है |
(10) वात्सल रस – Vatsalya Ras in Hindi
वात्सल रस की परिभाषा एवं अर्थ — माता – पिता का अपने सन्तान आदि के प्रति जो स्नेह होता है उसे वात्सल रस कहते है |
वात्सल रस का उदाहरण —
किलकत कान्ह घुटरुवन आवत |
मनिमय कनक नन्द के आँगन बिम्ब पकरिवे घावत ||
अथवा
बाल दसा सुख निरखि जसोदा, पुनि – पुनि नन्द बुलावति |
अँचरा – तर लै ढांकि सुर, प्रभु कौ दूध पियावति ||
विशेष :— वात्सल रस का स्थायी भाव स्नेह / वत्सलता अथवा वात्सल्य रति होता है |
(11) भक्ति रस – Bhakti ras in hindi
भक्ति रस की परिभाषा एवं अर्थ — भगवद गुण सुनकर जब चित्त उसमे निमग्न हो जाता है | तो कहाँ भक्ति रस होता है |
भक्ति रस का उदाहरण —
मेरो तो गिरधर गोपाल, दूसरो न कोई |
जाके सर मोर मुकुट, मेरो पति सोई ||
अथवा
एक भरोसा एक बल, एक आस विस्वास |
एक राम घनस्याम हित, चातक तुलसीदास ||
अथवा
राम जपु, राम जपु, राम जपु बावरे |
घोर भव नीर – निधि, नाम निज नाव रे ||
विशेष :— भक्ति रस का स्थायी भाव भगवद – विषयक रति / अनुराग होता है |
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