सम्राट अशोक का जीवन परिचय – Samrat Ashok Biography in Hindi

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चक्रवर्ती सम्राट अशोक भारतीय मौर्य राजवंश के महान सम्राट थे। अशोक का पूरा नाम देवानांप्रिय अशोक मौर्य (राजा प्रियदर्शी देवताओं का प्रिय) था। उसकी गणना विश्व की महान विभूतियों में की जाती है | बौध्द धर्म में अशोक का स्थान भगवान बुध्द के पश्चात् ही था | 

चन्द्रगुप्त मौर्य द्वारा स्थापित एवं बिन्दुसार  द्वारा पोषित-संरक्षित विशाल साम्राज्य के सुयोग्य उत्तराधिकारी अशोक ने अपने पिता बिन्दुसार की मृत्यु के पश्चात् 273 ई० पू० में सत्ता सँभाली। अशोक का नाम न केवल भारतीय इतिहास के महान् सम्राटों में शामिल है वरन् अपने विशिष्ट व्यक्तित्व के कारण वह विश्व के महानतम् सम्राटों में प्रमुखता से इतिहास में याद किया जाता है।

Samrat Ashok Biography in Hindi

विषय-सूची

सम्राट अशोक का जीवन परिचय हिंदी में – Samrat Ashok Biography in Hindi

निश्चय ही उसका शासनकाल भारतीय इतिहास के श्रेष्ठत्व का प्रतिनिधि कहा जाने योग्य है। एच०जी० वेल्स ने लिखा है, “इतिहास के पृष्ठों को रँगने वाले सहस्रों राजाओं के नामों के मध्य अशोक का नाम सर्वोपरि नक्षत्र के समान दैदीप्यमान है। ” साम्राज्य विस्तार, प्रशासनिक व्यवस्था, धर्म-संरक्षण, हृदय की उदारता, कला के विकास एवं प्रजावत्सलता आदि प्रत्येक दृष्टिकोण से अशोक का स्थान सर्वोच्च है।

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चक्रवर्ती सम्राट अशोक 

सम्राट अशोक ‘प्रियदर्शी ’ (273 ई० पू० से 232 ई० पू०) का इतिहास व जीवन परिचय – Samrat Ashoka ka Sahi Itihas

नामअशोक
जन्म273 ई० पू०
जन्म – स्थानपाटलिपुत्र, पटना
मृत्यु232 ई० पू०
मृत्यु स्थानपाटलिपुत्र, पटना
पत्नीपद्मावती,तिष्यारक्षा,देवी,करुवाकी
पुत्र और पुत्रीमहेन्द्र,संघमित्रा,तीवल,कुणाल,चारुमती
पिता का नामबिन्दुसार
माता का नामसुभद्रांगी (रानी धर्मा)

सम्राट अशोक का इतिहास जानने के साधन

अशोक के विषय में जानकारी उपलब्ध कराने वाले स्रोतों को निम्नलिखित भागों में विभाजित किया जा सकता है—

  1. साहित्यिक स्रोत—अशोक पर प्रकाश डालने वाले साहित्यिक स्रोतों में दीपवंश, महावंश, बुद्धघोष की रचनायें, दिव्यावदान, अशोकावदान, आर्यमंजूश्रीमूलकल्प, राजतरंगिणी व पुराण-कथायें आदि प्रमुख हैं। इनके अतिरिक्त कुछ चीनी लेखकों फाह्यान, ह्वेनसांग व इत्सिंग ने भी अपने वर्णनों में अशोक का उल्लेख किया है।
  2. पुरातात्विक स्रोत—पुरातात्विक स्रोतों में सबसे महत्वपूर्ण अशोक के स्वयं के शिलालेख हैं। इन अभिलेखों से अशोक के विषय में विस्तृत जानकारी मिलती है। अशोक के अभिलेखों के अतिरिक्त कुछ अन्य अभिलेखों से भी उसके विषय में सामग्री प्राप्त होती है। 150 ई० के रुद्रदामन के गिरनार अभिलेख व नागार्जुनी गुफा-अभिलेख इस विषय में उल्लेखनीय हैं।

सम्राट अशोक के शिलालेख -Inscriptions of Emperor Ashoka

अशोक के अभिलेख भारत के प्राचीन, सर्वाधिक सुरक्षित व तिथियुक्त आलेख हैं। ये शिलाओं और गुहाओं में उत्कीर्ण कराये गये थे। अभिलेखों की भाषा प्राकृत (पालि)  है। अधिकांश अभिलेख ब्राह्मी लिपि में हैं, लेकिन शाहबाजगढ़ी और मानसेहरा (पश्चिमोत्तर प्रदेश) से प्राप्त अभिलेख खरोष्ठी लिपि में हैं। तक्षशिला और लमगान (अफगानिस्तान) से प्राप्त अभिलेख अरेमाइक लिपियों में हैं। कन्धार (अफगानिस्तान) से प्राप्त एक शिलालेख दो भाषाओं में है— यूनानी भाषा में और उसका रूपान्तर अरेमाइक भाषा में है।

अशोक के अभिलेखों को अग्र प्रकार वर्गीकृत किया गया है—

  1. चौदह वृहद् शिलालेख—बड़े-बड़े शिलाखण्डों पर उत्कीर्ण ये चौदह वृहद् शिलालेख पूर्ण या आंशिक रूप में इन स्थानों पर मिले है—शाहबाजगढ़ी और मानसेहरा (दोनों पाकिस्तान में), गिरनार (जूनागढ़, गुजरात), सोपारा (थाना जिला महाराष्ट्र), कालसी (देहरादून, उत्तराखण्ड), धौली और जौगड़ (दोनों उड़ीसा में), तथा एरागुडी (कर्नूल, आन्ध्र प्रदेश)।
  2. लघु शिलालेख— ये संख्या में दो हैं। प्रथम लघु शिलालेख रूपनाथ (जबलपुर, मध्य प्रदेश) सहसराम (आरा, बिहार), बैराठ (जयपुर, राजस्थान), मास्की (रायचूर, आन्ध्र प्रदेश), गोविमठ, पालकिगण्डु (दोनों स्थान कर्नाटक में), एरागुडी, (कर्नूल, आन्ध्र प्रदेश), ब्रह्मगिरि, सिद्धपुर तथा जटिंग-रामेश्वरम् (तीनों स्थान चित्तलदुर्ग जिला, कर्नाटक में) से प्राप्त हुए हैं। द्वितीय लघु शिलालेख केवल अन्तिम चार स्थानों से प्राप्त हुआ है। अशोक के लघु शिलालेख बाद में इन स्थानों से भी प्राप्त हुये—गुर्जरा (दतिया, मध्य प्रदेश), अहरौरा (मिर्जापुर, उत्तर प्रदेश), पनगुडिरिया (सिहोर, मध्य प्रदेश) सारो मारो (शहडोल, मध्य प्रदेश), राजुल-मंडागिरि (कर्नूल, आन्ध्र प्रदेश), सत्रती (गुलबर्गा, कर्नाटक), बाहापुर (नई दिल्ली), नित्तूर (बेल्लारी, कर्नाटक), उदेगोलिम (बेल्लारी, कर्नाटक)।
  3. सात स्तम्भ-लेख— ये संख्या में सात हैं और इन स्थानों से प्राप्त हुए हैं— दिल्ली-टोपरा (अम्बाला, हरियाणा), दिल्ली-मेरठ, कौशाम्बी-प्रयागराज, लौरिया-अरराज, लौरिया-नन्दनगढ़ एवं रामपुरवा (अन्तिम तीनों स्थानों चम्पारन जिला, बिहार में)। दिल्ली-टोपरा स्तम्भ-लेख में ही अशोक के सात अभिलेख मिलते हैं, शेष सभी स्तम्भों पर छः उत्कीर्ण हैं।
  4. लघु स्तम्भ-लेख— तीन लघु स्तम्भ-लेख सारनाथ, साँची तथा कौशाम्बी से प्राप्त हुए हैं। लुम्बिनी तथा निग्लीव (दोनों स्थान नेपाल की तराई में) से अशोक के भिन्न लघु स्तम्भ-लेख मिले हैं। प्रयागराज से प्राप्त रानी का स्तम्भ-लेख भी लघु स्तम्भ-लेख की श्रेणी में गिना जाता है।
  5. बैराठ (भाब्रू) शिलालेख— यह बैराठ, (जयपुर, राजस्थान) की एक पहाड़ी की चोटी से प्राप्त हुआ था और इस समय कोलकाता संग्रहालय में है।
  6. पृथक् कलिंग शिलालेख—  नवविजित कलिंग प्रदेश में अशोक ने धौली तथा जौगढ़ (दोनों उड़ीसा में) दो पृथक शिलालेख प्रतिष्ठापित किये थे। ये दो शिलालेख 14 वृहद् शिलालेखों की शृखला के अनुपूरक हैं।
  7. गुहा अभिलेख— बिहार में गया के पास बराबर की पहाड़ियों में अशोक के तीन गुफालेख मिले हैं, जिनमें इन गुफाओं को अशोक द्वारा आजीवक सम्प्रदाय के भिक्षुओं को दान में दिये जाने की सूचना है।

सम्राट अशोक के प्रारम्भिक जीवन – Early life of Emperor Ashoka

दुर्भाग्यवश अशोक के अभिलेख उसके जीवन की प्रारम्भिक घटनाओं के विषय में मौन हैं, अतः अशोक के प्रारम्भिक जीवन की घटनाओं को जानने के लिये हमें एकमात्र साहित्यिक स्रोतों पर ही निर्भर रहना पड़ता है। अशोक बिन्दुसार का पुत्र था, किन्तु उसकी माता कौन थी? इस विषय में विद्वानों में मतवेद है। दीपवंश व महावंश ने बिन्दुसार की 16 रानियों व 101 पुत्रों का उल्लेख किया है। अशोकावदान के अनुसार अशोक की माता का नाम सुभदांगी था। ऐसा प्रतीत होता है कि अशोक ने अनेक विवाह किये थे। अशोक के चार पुत्र—महेन्द्र, कुणाल, तीवर व जालौक तथा संघमित्रा व चारुमती नामक दो पुत्रियाँ थीं।

बचपन में अशोक अत्यन्त उद्दण्द एवं कुरूप था।, जबकि उसका भाई सुशीम अत्यधिक रूपवान था। इस कारण अशोक कभी भी अपने पिता का सुशीम के समान स्नेह का पात्र न बन सका। बिन्दुसार ने अपने सभी पुत्रों के लिये उचित शिक्षा की व्यवस्था की थी, किन्तु समस्त राजकुमारों में अशोक सबसे योग्य था। अशोक को प्रशासनिक शिक्षा प्रदान करने हेतु बिन्दुसार ने उसे उज्जैन का गवर्नर नियुक्त किया था। बिन्दुसार के शासन काल में ही तक्षशिला में विद्रोह हुआ, जिसे दबाने में सुशीम असफल  रहा। तब बिन्दुसार ने अशोक को इस विद्रोह को दबाने व तक्षशिला में शांति की स्थापना करने के लिये भेजा था।

अशोक इस उद्देश्य को प्राप्त करने में सफल रहा। इस प्रकार अपने पिता के शासन काल में ही अशोक ने काफी प्रशासनिक अनुभव प्राप्त कर लिया था। तारानाथ के अनुसार,“अशोक ने अनेक वर्षों तक विलासतापूर्ण जीवन व्यतीत किया, जिसके कारण उसे ‘कामाशोक’ कहा गया। इसके बाद दूसरा दौर अत्यन्त दुष्टता का प्रारम्भ हुआ और परिणामस्वरूप अशोक ‘चण्डाशोक’ कहलाया।” बौद्ध-ग्रंथों से ज्ञात होता है कि युवावस्था में अशोक अत्यन्त दुराचारी व्यक्ति था

अशोक के विभिन्न नाम एवं उपाधि

  • अशोक — व्यक्तिगत नाम उल्लेख मास्की, गुर्जरा, नेत्तुर एवं उडेगोलम अभिलेख में
  • देवानामप्रियं — राजकीय उपाधि
  • प्रियदर्शी —अधिकारिक नाम
  • मगध का राजा — उल्लेख, भाब्रु अभिलेख में
  • अशोक मौर्य — जूनागढ़ अभिलेख में उल्लेख
  • अशोकवर्द्धन — पुराण में उल्लेख

अशोक का राज्यारोहण

273 ई० पू० में बिन्दुसार बीमार पड़ा, तब अशोक उज्जैन में गवर्नर के रूप में शासन कर रहा था। पिता के रुग्ण होने का समाचार प्राप्त होने पर उसने पाटलिपुत्र पहुँच कर  उसने मगध-सिंहासन पर अधिकार करने का प्रयास किया। युवराज न होने के कारण सम्भवतः उसे अपने बड़े भाई सुसीम या उत्तराधिकार के इच्छुक अन्य भाइयों से संघर्ष करना पड़ा था। जिसमें रक्तपात भी हुआ होगा, किन्तु दीपवंश व महावंश में वर्णित 99 भाइयों की हत्या की बात तो निश्चित रूप से काल्पनिक है क्योंकि अशोक के राज्याभिषेक के 13-14 वर्ष पश्चात् उत्कीर्ण पाँचवें शिलालेख में उसके जीवित भाइयों का उल्लेख है।

बौद्ध ग्रन्थों में 99 भाइयों की हत्या का वर्णन सम्भवतः अशोक के बौद्ध होने से पूर्व उसकी क्रूरता को प्रदर्शित करने के उद्देश्य से ही प्रेरित है ऐसा प्रतीत होता है कि लगभग चार वर्ष के संघर्ष के उपरान्त अशोक को इस संघर्ष में विजयश्री मिली तथा उसी संघर्ष के दौरान उसे अपने कुछ भाइयों को मौत के घाट उतारना पड़ा। इस प्रकार अपने स्थिति को सुदृढ़ कर व सम्पूर्ण साम्राज्य पर अधिकार करके 269 ई० पू० में अशोक ने औपचारिक रूप से अपना राज्याभिषेक कराया।

सम्राट अशोक का कलिंग विजय और उसका प्रभाव (261 ई० पू०)

अपने शासनकाल के प्रारम्भिक वर्षों में अशोक ने अपने पितामह चन्द्रगुप्त मौर्य द्वारा प्रारम्भ की गयी साम्राज्यवादी एवं दिग्विजय नीति का ही अनुसरण किया। इसी क्रम में उसके शासन की जिस पहली घटना का अभिलेखों में उल्लेख है, वह कलिंग युद्ध है। यह युद्ध उसके अभिषेक के आठ वर्ष बाद अर्थात् नौवें वर्ष में हुआ था। अशोक के तेरहवें शिलालेख में कलिंग युद्ध का वर्णन है। कलिंग युद्ध अशोक के जीवन की एक क्रांतिकारी घटना सिद्ध हुई। कलिंग राज्य नन्दकाल में मगध साम्राज्य का ही अंग था, परन्तु ऐसा प्रतीत होता है कि नन्द वंश के पतन के बाद कलिंग स्वतंत्र हो गया था।

कलिंग युद्ध अशोक के जीवन का पहला और अन्तिम युद्ध बताया जाता है। अशोक के तेरहवें शिलालेख में इस युद्ध की भीषणता और उससे उत्पन्न कष्टों का वर्णन किया गया है तथा यह भी बताया गया है कि उसका अशोक के मन पर क्या प्रभाव पड़ा। इस शिलालेख के अनुसार, इस युद्ध में एक लाख लोग मारे गये, डेढ़ लाख लोग बन्दी बना लिये गये और कई लाख बर्बाद हो गये थे। ये संख्यायें अतिशयोक्तिपूर्ण हो सकती हैं, लेकिन एक बात साफ है कि इस युद्ध का कलिंग के लोगों पर विनाशकारी  प्रभाव पड़ा।

युद्ध की विभीषिका ने अशोक के मन को बुरी तरह झकझोर दिया और उसके व्यक्तित्व को पूर्णरूप से बदल डाला। युद्ध की नृशंसता को देखकर अशोक के दिल में बहुत पश्चात्ताप हुआ। फलस्वरूप उसने आक्रामण की नीति को छोड़ दिया और लोगों के दिल जीतने का प्रयास किया।

फिर तो युद्ध की घोषणा करने वाले नगाड़ों की बजाय धम्मघोष करने वाले नगाड़े बजाये जाने लगे, जिनके साथ सदाचार एवं नैतिकता का प्रचार किया जाने लगा। इस सम्बन्ध में अशोक ने दो आदेश जारी किये। ये आदेश धौली (पुरी जिला) व जौगढ़ (गंजाम) के शिलालेखों पर उत्कीर्ण हैं। इन शिलालेखों में उत्कीर्ण विवरण इस प्रकार हैं—“सम्राट का आदेश है कि प्रजा के साथ पुत्रवत् व्यवहार, जनता को प्यार किया जाये, अकारण लोगों को दण्ड व यातना न दी जाये। जनता के साथ न्याय किया जाना चाहिये।

उन्हें राजा के साथ व्यवहार करने  से सुख ही मिलेगा, कष्ट नहीं। राजा यथाशक्ति उन्हें क्षमा करेगा, वे धम्म का पालन करें। यहाँ उन्हें सुख मिलेगा तथा मृत्यु के बाद स्वर्ग।” इस प्रकार उसने जनता और जीवधारियों की भलाई के लिये अनेक कदम उठाये। साथ ही उसने पश्चिम एशिया के यूनानी राज्यों और अन्य देशों में अपने शान्तिदूत भेजे।

किन्तु इसका अर्थ यह नहीं कि वह एक बुजदिल शान्तिवादी था। इसके विपरीत उसने लोगों को चेतावनी दी कि इन भलाई के उपायों को उसकी कमजोरी का संकेत न माना जाये। यदि आवश्यकता हुई तो वह गलती करने वालों के साथ कठोर-से-कठोर बर्ताव करने से भी नहीं चूकेगा। उसने शान्ति की नीति दिखावे के तौर पर नहीं बल्कि हर परिस्थिति में शान्ति बनाये रखने के लिये अपनायी।

उसने अपने साम्राज्य में एक विशेष श्रेणी के अधिकारियों को नियुक्ति किया, जिन्हें “राजुक (रज्जुक)” कहा जाता था। उन्हें लोगों को भले काम के लिये पुरस्कृत करने का अधिकार ही नहीं सौंपा, अपितु जरूरत पड़ने पर बुरे लोगों को दण्ड देने की शक्ति भी प्रदान की।

सम्राट अशोक का धम्म -Dhamma of Emperor Ashoka

इसमें कोई संदेह नहीं है कि अशोक का व्यक्तित्व धर्म बौद्ध धर्म ही था। अपने भाब्रू शिलालेख में वह कहता है कि उसे बुद्ध, धम्म और संघ में पूर्ण आस्था है। यद्यपि अशोक ने अपने मुख्य धर्म के रूप में बौद्ध धर्म को अपनाया था, तथापि यह सोचना गलत होगा कि उसने अपनी प्रजा पर बौद्ध धर्म के सिद्धान्तों को थोपा था। वह सभी धर्मों का आदर करता था और सभी पंथों एवं सम्प्रदायों के नैतिक मूल्यों के बीच पायी जाने वाली एकता में विश्वास रखता था। अपने  सातवें  शिलालेख में वह कहता है, “सभी पंथ संयम एवं मन की शुद्धता पर बल देते हैं।”

बारहवें शिलालेख में वह सभी धर्मों एवं पंथों के प्रति समान आदर-भाव की अपनी नीति को और अधिक स्पष्ट करता है। वह कहता है कि वह “सभी पंथों एवं सम्प्रदायों और साधु-संयासियों तथा आम नागरिकों का, उपहारों तथा अऩ्य रूपों में मान्यता प्रदान कर आदर करता है।” कलिंग युद्ध के बाद अशोक के सामने सबसे बड़ा आदर्श और उद्देश्य धम्म का प्रचार करना था। अशोक का धम्म, जैसा कि उसने अपने  शिलालेखों में स्पष्ट किया है, कोई धर्म या धार्मिक प्रणाली नहीं है, लेकिन एक ‘नैतिक नियम’ है, एक ‘सामान्य आचार संहिता’ या एक ‘नैतिक व्यवस्था’ है।

दूसरे स्तम्भलेख में अशोक स्वयं एक प्रश्न करता है —“धम्म क्या है?” फिर वह स्वयं ही धम्म के दो मूलभूत लक्षण या अंग बताता है, अल्प दुष्कर्म और अधिक सत्कर्म। वह कहता है कि रोष, निर्दयता, क्रोध, घमण्ड तथा ईर्ष्या जैसी बुराइयों से सदा बचना चाहिये और दया, उदारता, सच्चाई, सरलता, संयम, हृदय की पवित्रता, नैतिकता में आशक्ति और आन्तरिक तथा बाह्य पवित्रता आदि सत्कर्मों एवं सदाचारों का निष्ठापूर्वक पालन करना चाहिये।

अशोक ने बारहवें शिलालेख तथा अन्य बहुत से राज्यादेशों में निम्नलिखित सदाचारों का पालन करने के लिए कहा है—

  1. माता-पिता, वृद्धजन, गुरु और अन्य आदरणीय व्यक्तियों की आज्ञा का पालन।
  2. गुरुओं के प्रति आदर-भाव।
  3. साधु-संन्यासियों, सगे-संबंधियों, दासों, नौकर-चाकरों तथा आश्रितजनों, गरीबों एवं दुःखी लोगों, मित्रों, परिचितों तथा साथियों के प्रति उचित व्यवहार।
  4. भिक्षुओं, साधु-संन्यासियों, मित्रों, साथियों, सगे-सम्बंधियों और वृद्धजनों के प्रति उदारता।
  5. जीव-हत्या से बचना।
  6. प्राणियों को क्षति न पहुँचाना।
  7. अल्प व्यय और अल्प संग्रह।
  8. सभी प्राणियों के साथ नरमी बरतना।
  9. सच बोलना।
  10. नैतिकता से आसक्ति तथा हृदय की पवित्रता रखना।

इस प्रकार, अशोक ने नैतिक नियमों (धम्म) को शासन के सिद्धान्त के रूप में अपनाया और जीवन के हर क्षेत्र में उनका पालन करने पर बल दिया। अतः अशोक का धम्म सदाचारपूर्ण एवं नैतिक जीवन व्यतीत करने के लिए एक आचार-संहिता है।

अशोक द्वारा भेजे गए बौध्द धर्म प्रचारक एवं क्षेत्र

धर्म प्रचारक प्रचार का क्षेत्र 
मज्झन्तिककश्मीर – गांधार
मज्झिमहिमालय
सोन व उत्तरासुवर्णभूमि
रक्षितउत्तरी कनारा
धर्म रक्षितपश्चिमी भारत
महारक्षितयवन राज्य
महाधर्म रक्षितमहाराष्ट्र
महादेवमैसूर
महेन्द्र और संघमित्राश्रीलंका

धम्म का स्वरूप — अशोक के धम्म के स्वरूप को लेकर विद्वानों में अत्याधिक पारस्परिक मतभेद है। विभिन्न इतिहासकारों ने भिन्न-भिन्न मत प्रतिपादित किये है, जिनका वर्णन निम्नलिखित है—

  • फ्लीट के अनुसार, “अशोक द्वारा प्रतिपादित ‘धम्म” सही अर्थों में राजधर्म था, जिसमें राजनीतिक एवं नैतिक सिद्धान्तों का समावेश था।”
  • स्मिथ महोदय के अनुसार, “अशोक का ‘धम्म’ सर्वभौम धर्म था, क्योंकि इसमें आचार-मूलक सिद्धान्त सभी के लिए मान्य थे।”
  • रोमिला थापर ने ‘धम्म’ को “अशोक का अन्वेषण” स्वीकार किया है।
  • डॉ० भण्डारकर के अनुसार, “अशोक का ‘धम्म’ धर्मनिरपेक्ष बौद्ध धर्म के अतिरिक्त कुछ नहीं था।”
  • डॉ० नीलकण्ठ शास्त्री के अनुसार, “अशोक के ‘धम्म’ को सामाजिक नीतिशास्त्र की एक व्यावहारिक संहिता स्वीकार किया गया है।”
  • डॉ० आर० के० मुखर्जी के अनुसार, “अभिलेखों का धम्म किसी एक धर्म अथवा धार्मिक सम्प्रदाय का न होकर पृथक् नैतिक कानून था।”

अशोक के धम्म में निहितार्थ शिक्षायें

अशोक के 12वें शिलालेख तथा अन्य वृहत् शिलालेखों में निम्नलिखित सदाचारों के पालन का निर्देश दिया गया है—

  • माता-पिता, वृद्धजन, गुरु आदि की आज्ञा का पालन।
  • साधु-संन्यासियों, सगे-सम्बन्धियों, दासों, आश्रित जनों, गरीबों एवं दुःखी लोगों, मित्रों आदि के प्रति उचित व्यवहार।
  • जीव-हत्या से बचना। सभी प्राणियों के प्रति अहिंसा।
  • सच बोलना।
  • अपने सम्प्रदाय की प्रशंसा एवं दूसरों के सम्प्रदाय की निन्दा अनुचित अवसरों पर नहीं करना।
  • दूसरों के धर्मों को सुनना।
  • सभी धर्मों के मेल-जोल।
  • पापों को आत्म-निरीक्षण द्वारा पहचानना।
  • उग्रता, निष्ठुरता, क्रोध, मान एवं ईर्ष्या से बचना।
  • बहुकल्याण, दान, दया आदि को बढ़ावा देना।

अशोक द्वारा ‘धम्म’ के प्रचार के लिए किये गये प्रयास

अशोक ने अपने ‘धम्म’ के प्रचार को विभिन्न माध्यमों से, जनता में लोकप्रिय बनाने का यथासम्भव प्रयास किया | अपने धम्म के प्रचार के लिये किये गये अशोक के कार्य निम्नलिखित है —

  1. धर्ममहामात्रों की नियुक्ति —  धर्म के प्रचार के लिये अशोक ने अधिकारियों के एक नये वर्ग की सृष्टि की जिन्हें धर्ममहामात्र कहा गया | अशोक के पांचवें शिलालेख से ज्ञात होता है कि धर्ममहामात्रो की नियुक्ति उसके राज्याभिषेक के तेरहवें वर्ष की गयी | इन धर्ममहामात्रो के दो मुख्य कार्य है — धम्म की स्थापना करना धम्म की वृद्धि करना |
  2. धर्मलिपि एवं धर्मानुशासन  — अशोक ने अपनी प्रजा तक अपने धम्म के विचारों को पहुँचाने के लिये , उन्हें साम्राज्य के विभिन्न स्थानों पर, अभिलेखों के रूप में अंकित करवाया | अपने धम्म – विचार – मूलक अभिलेखों को अशोक ने “धम्मलिपि” कहा और धम्म के विधान को धम्मानुशासन |
  3. धर्म यात्रायें  — धर्म प्रचार हेतु अशोक ने बिहार यात्राओं के स्थान पर धर्म यात्रायें प्रारम्भ की | उसने स्वयं बौद्ध धर्म के पवित्र स्थानों; यथा लुम्बिनी , बोधगया,सारनाथ, कुशीनगर,श्रावस्ती , वैशाली आदि का भ्रमण  किया |
  4. जीव हिंसा का विरोध  — सभी प्राणियों के प्रति अहिंसा का भाव अशोक के धम्म का महत्वपूर्ण सिध्दान्त था | अपने पांचवे स्तम्भ – लेख में अशोक कहता है कि उसने अपने राज्याभिषेक के छब्बीस वर्ष बाद, अनेक पशुओं को अवैध घोषित कर दिया | पशुओं को दागने की प्रथा को भी अशोक ने नियंत्रित कर दिया |
  5. परोपकारिता के कार्य — अशोक ने सभी प्राणियों की सुख एवं सुविधा के लिये देश एवं विदेश में, परोपकारिता के अनेक कार्य किये जिनका एक प्रयोजन लोगो को धम्म के आचरण की ओर प्रेरित करना था | सातवें स्तम्भ लेख में अशोक का कथन है कि “मार्गों में मेरे द्वारा वट – वृक्ष लगवाये गये जो पशुओं और मनुष्यों को छाया  – सुख देगे | आम्रवातिकायें लगायी गयीं | प्रति दो मील की दूरी पर कुएँ खुदवाये गये तथा विश्राम गृह बनवाये गये | जलशालायें बनवायी गयीं |क्यों ? पशुओं और मनुष्यों के सुख के लिए …………. मैंने यह इस अभिप्राय से किया है कि लोग ‘धम्म’ का आचरण करें।” अपने द्वितीय शिलालेख में अशोक ने अपने राज्य में तथा सीमान्त प्रदेशों में, मनुष्यों तथा पशुओं दोनों के लिए अलग-अलग चिकित्सालयों की व्यवस्था का उल्लेख किया है।

सम्राट अशोक का शासन-प्रबंध

अशोक का सम्राज्य उत्तर में कश्मीर से सुदूर दक्षिण में मैसूर तक और पश्चिम में अफगानिस्ता-बलूचिस्तान से लेकर पूर्व में बंगाल तक विस्तृत था। पूर्व में केवल आसम उसके साम्राज्य में सम्मिलित नहीं था। सुदूर दक्षिण में चोल, पाण्डय् इत्यादि छोटे-छोटे राज्य भी उसके अधीन नहीं थे। शेष सम्पूर्ण भारत अशोक के शासन के अन्तर्गत था। इसकी पुष्टि उसके शिलालेखों तथा साहित्यिक साक्ष्यों से होती है। प्राचीन भारत में किसी भी सम्राट को इतने बडें साम्राज्य पर शासन करने का सौभाग्य प्राप्त नहीं हुआ था।

केन्द्रीय शासन

अशोक के प्रशासन का स्वरूप राजतन्त्रात्मक था तथा शासन-व्यवस्था उसके पूर्ववर्ती सम्राटों की व्यवस्था के अनुरूप थी। लेकिन, अशोक निरंकुश एवं स्वेच्छाचारी न होकर जन-हितैसी शासक था। सिद्धान्त रूप में सम्राट सार्वभौम शक्ति-समपन्न एवं शासन के सभी पक्षों का सर्वोच्च अधिकारी था, लेकिन व्यावहारिक रूप में अशोक जनहित को प्रमुखता देता था। वह व्यक्तिगत् रूप से जनता की कठिनाइयों का पता लगाता रहता था और उन्हें दूर करने का प्रयास करता था।

मन्त्रि-परिषद्

यद्यपि साम्राज्य में सम्राट सर्वोपरि था, लेकिन चन्द्रगुप्त मौर्य के समय के समान प्रशासनिक कार्यों में सहयोग देने के लिये अशोक ने भी मन्त्री, मन्त्रिण और मन्त्रि-परिषद् को बनाये रखा था। उसने अपने मन्त्रि-परिषद् के सदस्यों को गुप्त एवं गूढ़ बातों पर सम्राट से मन्त्रणा करने और अपना मत प्रस्तुत करने की स्वन्त्रता दे रखी थी।

उसके छठे शिलालेखों से स्पष्ट होता है कि उसके मन्त्री महत्वपूर्ण विषयों पर सम्राट से वाद-विवाद कर सकते थे। किन्तु, अशोक की मन्त्रि-परिषद् में दृढ़-चरित्र, उच्च नैतिकता एवं धार्मिक आदर्शों का पालन करने वाले व्यक्ति ही मन्त्री बन सकते थे। अशोक के समय में मन्त्रि-परिषद् का दृष्टिकोण भी सम्राट के विचार-परिवर्तन और लोकोपकारी नीति के कारण बदल गया। मन्त्रि-परिषद् को सत्य, अहिंसा, सेवा आदि सिद्धान्तों के आधार पर काम करना पड़ता था।

प्रान्तीय शासन

शासन की सुविधा के लिये साम्राज्य पाँच भागों अथवा प्रान्तों में विभाजित था। ये प्रकार थे—

  1.  प्राच्य अथवा उत्तर-पूर्वी प्रान्त।
  2. उत्तरापथ अथवा उत्तर-पश्चिमी प्रान्त।
  3. दक्षिणापथ।
  4.  अपरान्त अथवा अवन्ति।
  5.  कलिंग देश।

साम्राज्य के इन प्रान्तों के प्रान्तपति (सूबेदार) के रूप में सामान्तया राजकुमारों को नियुक्ति किया जाता था, जिन्हें अभिलेखों में ‘कुमार’ और ‘आर्यपुत्र’ के नाम से सम्बोधित किया गया है। प्रान्तपति से स्वामीभक्ति की पूर्ण आशा की जाती थी। प्रान्तपति निरंकुश न हो जाये, इसके लिये प्रान्तों में भी मन्त्रि-परिषदें होती थी जो प्रान्तीय शासक के कार्य में प्रान्तपति को सहायता देती थीं और प्रान्तपति की गतिविधियों की सूचना सम्राट को देती थीं।

अशोक के तेरहवें शिलालेख से विदित होती है कि इन प्रान्तों के अलावा अशोक के साम्राज्य में कुछ ऐसे भी प्रदेश थे, जो सम्राट के अधीन तो थे परन्तु वहां की शासन-व्यवस्था का भीर स्थानीय शासकों को सौंप रखा था। यवन, कम्बोज, नाथपन्ति, भोज, परिन्द, आन्ध्र ऐसे ही स्वाशासित राज्य थे।

प्रमुख अधिकारी

अशोक के अभिलेख से पदाधिकारियों का ज्ञान होती है। वैसे उसके अधिकांश प्रशासनिक अधिकारी कौटिल्य के ‘अर्थशास्त्र’ में वर्णित पदाधिकारी ही थे। उनमें से प्रमुख निम्नलिखित थे—

  • अग्रमात्य— यह सम्राट का प्रमुख मन्त्री तथा सहायक होता था। अशोक का अग्रमात्य राधागुप्त था।
  • महामात्र— प्रशासन के विभिन्न विभागों के अध्यक्ष को महामात्र कहा जाता था।
  • राजुक— राजुक, प्रान्तीय स्तर के उच्च अधिकारी होते थे। इनका मुख्य कर्त्तव्य प्रजा की सुख-सुविधा का देखभाल करना था। कुछ विद्वानों के अनुसार इनकी समता आजकल के जिलाधीशों से की जाती है। डॉ० भण्डारकर के अनुसार ये न्याय तथा भूमि प्रबन्ध से सम्बन्धित अधिकारी थे। परन्तु डॉ० राधाकुमुद मुखर्जी के अनुसार राजुक प्रान्तीय शासक थे। उल्लेखनीय है कि कौटिल्य के अर्थशास्त्र में ‘राजुक’ का उल्लेख नहीं मिलता।
  • युत्त अथवा युक्त— इनका प्रमुख कार्य राजस्व संग्रह करना था। प्रत्येक प्रान्त की मालगुजारी तथा अन्य आयकरों को वसूल करना ‘युत्तों’ का कर्त्तव्य था। पंचवार्षिक दौरों में उच्चाधिकारियों के साथ जाना भी उनका कर्त्तव्य था। कुछ इतिहासकार इन्हें जिलों का कोषाध्यक्ष तथा राजस्व-संग्रहकर्त्ता मानते हैं।
  • प्रादेशिक— डॉ० स्मिथ के अनुसार प्रादेशिक जिलों का अधिकारी होता था और उसका प्रमुख कार्य कर वसूल करना तथा फौजदारी न्याय करना था। जिले के अन्य अधिकारियों पर नियन्त्रण रखना भी इसी का काम था। कुछ विद्वानों ने इसकी समता कौटिल्य के अर्थशास्त्र के ‘प्रदेष्टा’ के साथ की है। परन्तु प्रदेष्टा तो प्रदेश का शासक होता था। अशोक के अभिलेखों में केवल पंचवर्षीय दौरों के सम्बन्ध में एक बार इस अधिकारी का उल्लेख आया है।

इसके अलावा अन्य बहुत-से अधिकारियों का  उल्लेख मिलता है। प्रान्तीय नगरों का प्रबन्ध नगर व्यावहारियों द्वारा होता था जो आजकल के सिटी मजिस्ट्रेट के समान थे। प्रथम स्तम्भ लेख से ज्ञात होता है कि सभी राजकर्मचारी जिन्हें ‘पुरुष’ (पुलिस) कहा गया है, तीन श्रेणियों में विभाजित थे—सबसे श्रेष्ठ (उफस), मध्यम श्रेणी (माझिम) और अन्तिम श्रेणी (गेवय)।

सीमान्त रक्षा के लिये अन्तः महामात्र थे। इनका कर्त्तव्य साम्राज्य की सीमाओं की रक्षा करना था। अशोक के धम्म का प्रचार करना भी उनका काम था। मार्गों की सुरक्षा की देखभाल करने वाला अधिकारी ‘वचभूमिका’ कहलाता था। राज-समाचारों और संदेशों तथा घोषणाओं को प्रज्ञापित करने वाले कर्मचारी ‘राजवचनिक’ कहलाते थे।

लोक-कल्याणकारी कार्य

अशोक एक प्रजावत्सल सम्राट था। अतः उसने लोक-कल्याणकारी कार्यों को प्राथमिकता दी। उसने प्रजाहित के लिये निम्नलिखित कार्य किये—

  1. आवागमन, आश्रय एवं चिकित्सा आदि सुविधायें— अशोक ने अपनी जनता को हर सम्भव सुविधायें प्रदान कीं। उसने आवागमन हेतु सड़कें, आश्रय हेतु धर्मशालायें एवं सरायें, चिकित्सा हेतु औषधालय तथा शिक्षा हेतु स्कूल निर्मित कराये। इसके अतिरिक्त सड़कों के सिनारे छायादार वृक्ष लगवाये तथा अनेक कुओं और बावड़ियों का निर्माण कराया।
  2. प्रतिवेदकों की नियुक्ति— प्रजा की समस्त सूचनायें सम्राट को यथासमय मिलती रहें, इसके लिये अशोक ने “प्रतिवेदक” नामक पदाधिकारी की नियुक्ति की। ये पदाधिकारी जनता की सूचनाओं को बिना रोक-टोक के कभी भी सम्राट तक पहुँचाने के लिये उत्तरदायी थे।
  3. कुछ समारोह एवं उत्सवों पर प्रतिबन्ध— अशोक ने कुछ ऐसे समारोह, उत्सवों एवं अनुष्ठानों पर प्रतिबन्ध लगा दिया, जिनमें शराब, मांस तथा नृत्य आदि का प्रयोग होता था। ऐसा उसने इसलिये किया जिससे लोगों की नैतिक एवं आध्यात्मिक उन्नति में किसी प्रकार की बाधा न पड़े।
  4. पशुवध पर प्रतिबन्ध— अशोक ने राजाज्ञा जारी कर पशुवध पर प्रतिबन्ध लगा दिया। उसने मांस भक्षण पर भी प्रतिबन्ध लगा दिया।
  5. कैदियों की मुक्ति— अशोक ने प्रतिवर्ष अपने जन्मदिन के अवसर पर कुछ कैदियों को मुक्त करने की प्रथा का प्रचलन किया। इस प्रकार उसने अपराधियों के प्रति भी उदारता का व्यवहार किया। उसने यह भी आदेश दिये कि जिन अपराधियों को फाँसी दी जाती है, उन्हें तीन दिन का समय प्रायश्चित् के लिये दिया जाये।
  6. धम्म-महामात्रों की नियुक्ति— अशोक ने प्रजा की सुख-शान्ति के लिये धम्म-महामात्रों की नियुक्ति की। ये धम्म-महामात्रा प्रजा के धार्मिक कार्यों में सहयोग देकर प्रजा की धार्मिक भावनाओं की रक्षा करते थे। ये धम्म-महामात्र राज्याधिकारियों के कार्यों पर निगरानी रखते थे।
  7. धर्म यात्रायें— अशोक ने बिहार यात्रा के स्थान पर धर्म यात्रायें आरम्भ कीं। धर्म यात्राओं में वह धार्मिक चर्चा करता था। इसके अतिरिक्त, वह साधु- सन्तों एवं वृद्धजनों के दर्शन करता था।
  8. पिछड़े वर्गों का उत्थान— अशोक ने सीमान्त प्रदेश के कबाइली आदि पिछड़े वर्ग के लोगों के साथ दण्ड तथा कठोरता की नीति का परित्याग कर उनके साथ दया और उदारता का व्यवहार किया। इस प्रकार अशोक ने उनके हृदय को जीत लिया और उनकी भौतिक तथा नैतिक उन्नति में सहयोग दिया।

सम्राट अशोक का मूल्यांकन तथा इतिहास में स्थान

अशोक ने केवल भारतीय में वरन् विश्व इतिहास में अपना गौरवपूर्ण स्थान रखता है। वह ऐसा महान् शासक था जिसने नागरिकों की भौतिक एवं नैतिक उन्नति के लिये यथा सम्भव साधन जुटाये। राधाकुमुद मुखर्जी के अनुसार, “सम्पूर्ण इतिहास में कोई भी राजा ऐसा नहीं हुआ जिसकी तुलना अशोक  से की जा सके। सम्पूर्ण राज्य में बौद्ध धर्म को फैलाने की दृष्टि से वह इजराइल के डेविड और सोलोमैन के समान था। राज्य विस्तार और शासन-प्रणाली के क्षेत्र में उसकी तुलना सोलोमैन से ही की जा सकती है। अन्त में खलीफा उमर और सम्राट अकबर भी उसकी श्रेणी में रखे जा सकते हैं।”

हेमचन्द्र राय चौधरी के मत में, “अशोक इतिहास की महान् विभूतियों में से एक था। उसने प्रजा का पुत्रवत् पालन किया। गंगा घाटी के धर्म को उसने विश्व धर्म बना दिया।” एच० जी० वैल्स का कथन है कि, “अशोक का नाम बड़े-बड़े और विभिन्न उपाधियों वाले सहस्त्रों शासकों में, जिसका वर्णन इतिहास में आता है, सितारे की तरह चमकता है। वोल्गा से जापान तक आज भी उसका सम्मान किया जाता है।”

वास्तव में अशोक एक महान् विजेता, कुशल शासक एवं प्रबन्धक था, परन्तु ये गुण तो विश्व के अन्य शासकों में भी पाये जाते हैं। जनसेवा की भावना एवं उच्चकोटि की मानवता अशोक जैसे विरले सम्राटों में ही थी। सिकन्दर, चन्द्रगुप्त मौर्य, समुद्रगुप्त, अकबर, नैपोलियन जैसे सम्राटों ने केवल तलवार के बल पर ही प्रसिद्धि प्राप्त की थी। यह प्रसिद्धि ताकत से अर्जित की गयी थी। इन सम्राटों की ताकत समाप्त होने के साथ उनकी कीर्ति भी समाप्त हो गयी। लेकिन अशोक ने प्रेम, दया और परोपकार के द्वारा प्रसिद्धि प्राप्त की, जो आज भी विद्यमान है। उसने न केवल, अपने नाम को वरन् भारत के नाम को भी विश्व में अमर कर दिया।

सम्राट अशोक के शिलालेख – Inscriptions of Emperor Ashoka

  • सम्राट अशोक के अभिलेखों को सर्वप्रथम पढ़ने का श्रेय जेम्स प्रिंसेप को है, जिसने 1837 ई० में इस कार्य को पूरा किया।
  • अशोक के गान्धार अभिलेख को द्विभाषी (आर्मेइक, यूनानी) अभिलेख कहा जाता है।
  • शाहबाजगढ़ी और मानसेहरा (पाकिस्तान) के अभिलेख खरोष्ठी लिपि में उत्कीर्ण है।
  • अशोक के सभी अभिलेखों में उसकी उपाधि ‘देवानाप्रियदर्शी’ का उल्लेख आया है। मात्र मास्की (आन्ध्र प्रदेश) एवं गुर्जरा (मध्य प्रदेश) के शिलालेखों में ही उसके नाम ‘अशोक’ का उल्लेख आया है। अशोक के शिलालेख उसके शासनादेश अथवा राज्यादेश हैं, क्योंकि वे राजा के आदेशों अथवा उसकी इच्छा के अनुरूप प्रजा के लिये प्रस्तुत किये गये थे।
  • रुम्मिनदेई शिलालेख में अशोक की लुम्बिनी ग्राम की यात्रा का उल्लेख है। इस अवसर पर अशोक न लुम्बिनी के वासियों का भूमिकर घटाकर 12.5 प्रतिशत कर दिया एवं इस प्रदेश को बलिमुक्त प्रदेश घोषित कर दिया।
  • शिलालेख नं० 8 में राज्यभिषेक के 10 वर्ष पश्चात् (159ई०पू०) अशोक की बौद्धगया यात्रा का उल्लेख है, जो उसकी प्रथम धर्म यात्रा थी।
  • लघु शिलालेख नं० 1 में अशोक के बौद्ध धर्म ग्रहण करने का उल्लेख है।
  • साँची, सारनाथ और प्रयाग के लघु स्तम्भ-लेखों में अशोक ने उन बौद्ध भिक्षुओं को चेतावनी दी है, जो भिक्षु संघ में फूट डालने का प्रयास करते हैं।
  • धौली और जोगड़ (उड़ीसा) में प्राप्त 11, 12, 13 नं० के शिलालेख कलिंग युद्ध से सम्बन्धित हैं, इसलिये इन्हें कलिंग अभिलेख भी कहा जाता है।
  • भाब्रू शिलालेख (बैराठ-जयपूर) में अशोक ने न केवल बौद्ध त्रिरत्नों (बुद्ध, धम्म और संघ) के प्रति श्रद्धा अभिव्यक्त की है, अपितु साथ ही विभिन्न बौद्ध ग्रन्थों का भी उल्लेख किया है।

डी० आर० भण्डारकर  की दृष्टि में, “अशोक के धर्म प्रचार से संसार को अतुलनीय लाभ हुआ। बौद्ध धर्म के सहारे केवल धर्म और दर्शन का ही प्रचार नहीं हुआ, वरन् भारतीय संस्कृति का प्रभाव दूसरे देशों की जनता पर पड़ा। इस तरह से अशोक विश्व इतिहास के रंगमंच पर अद्वितीय पात्र था, जिसने लोक-कल्याण को ही अपनी शासन नीति का आधार बनाया। उसे लोक कल्याणकारी राज्य का जन्मदाता कह सकते हैं। परन्तु खेद है कि उसके उत्तराधिकारी अयोग्य निकले। उसकी मृत्यु के पश्चात् मौर्य वंश के शासन का पतन होने लगा।

स्मरणीय बिन्दु

  • प्राचीन भारत की राजनीतिक एकता एवं मौर्य साम्राज्य की स्थापना चन्द्रगुप्त की महत्त्वपूर्ण उपलब्धि है।
  • भारतीय प्रदेशों में विदेशी शासन की समाप्ति मौर्य शासन की देन है।
  • इस युग में यूनानी सम्पर्क से ज्ञान, कला का आदान-प्रदान हुआ, जिससे भारतीय मुद्रा, कला, दर्शन व भाषा पर दूरगामी प्रभाव पड़ा।
  • कौटिल्य की सहायता से चन्द्रगुप्त ने एक श्रेष्ठ प्रशासनिक व्यवस्था स्थापित की।
  • मौर्यकालीन शासन-व्यवस्था उत्तरवर्ती शासन-प्रणाली के लिये भी  मार्गदर्शक सिद्ध हुई।
  • सेल्यूकस को पराजित कर चन्द्रगुप्त ने विदेशी आक्रमण का सफल प्रतिरोध किया।
  • सम्राट अशोक ने कलिंग युद्ध के पश्चात् युद्ध नीति का परित्याग कर दिया।
  • अशोक ने अपने धम्म के उपदेशों को प्रजा हितार्थ शिलालेखों में अंकित करवाया था।
  • अशोक का धम्म सार्वथभौम धर्म था।
  • कतिपय इतिहासकार अशोक की अहिंसा नीति को मौर्य साम्राज्य के पतन का एक प्रमुख कारण मानते हैं।

सम्राट अशोक के उत्तराधिकारी

अशोक की मृत्यु के पश्चात् उसके किसी भी उत्तराधिकारी के उसके समान योग्य न होने के कारण, शीघ्र ही मौर्य-साम्राज्य का पतन हो गया। अधिकांश विद्वान् कुणाल को अशोक का उत्तराधिकारी मानते थे। कुणाल ने आठ वर्षों तक शासन किया। कुणाल के पश्चात् दशरथ ने भी आठ वर्षों तक शासन किया। दशरथ के पश्चात् सम्प्रति, शालिशुक, देववर्मन व शतधनुष शासक हुए। इनके पश्चात् बृहद्रथ शासक बना जो मौर्य-साम्राज्य का अन्तिम शासक था।

बृहद्रथ के सेनापति पुष्यमित्र शुंग  उसकी दुर्बलता का लाभ उठाकर 184 ई० पू० में उसकी हत्या कर दी तथा राजसिंहासन पर अधिकार कर लिया। इस प्रकार 184 ई० पू० में मौर्य साम्राज्य का पतन हो गया। यह मौर्य राजवंश 323 ई० पू० से 184 ई० पू० तक चला।

पर्यावरण के प्रति सचेत थे : महाबली चक्रवर्ती सम्राट अशोक महान…

भारत के लिखित इतिहास में पर्यावरण संरक्षण का कार्य एक शासक द्वारा सर्वप्रथम ईसा पूर्व तीसरी शताब्दी में मौर्य शासक चक्रवर्ती सम्राट अशोक महान द्वारा किया गया था।

प्रकृति की महत्ता को स्वीकारते हुए सम्राट अशोक ने वन एवं वन्य जीव-जन्तुओं के संवर्धन तथा संरक्षण पर बल दिया। जिसका प्रमाण आज भी चक्रवर्ती सम्राट अशोक के अभिलेखों में सुरक्षित है।

  1. चक्रवर्ती सम्राट अशोक ने अपने शासनकाल में हर 8 किमी पर तालाब खुदवाए व आश्रम स्थल बनावाए, सड़कों के किनारे-किनारे पौधारोपण कराया, सभी राज्यों और पड़ोसी देशों में लाभदायक जड़ी बूटियों को रोपित कराया। जो पर्यावरण और लोगों के हित के लिए किया गया कार्य था‌।
  2. शिकार प्रथा और लोगों द्वारा अकारण जीवों की हत्या पर शासनादेश पारित कर प्रतिबन्ध लगा दिया। जिससे पेड़ पौधों और जीव-जन्तुओं के बीच संतुलन बना रहे।
  3. उन्होंने जगह -जगह पशुओं के लिए भी हॉस्पिटल खोलवाए। ज्ञात इतिहास के अनुसार भारत में सर्वप्रथम पशुओं का स्वतंत्र हाॅस्पिटल खोलने वाले चक्रवर्ती सम्राट अशोक थे। उन्होंने दूसरे शिलालेख में लिखवाया है कि “मनुष्य चिकित्सा और पशु चिकित्सा, मैंने दो चिकित्साओं को अलग-अलग स्थापित किया।”
  4. अभयवनों की अवधारणा : वन्य जीवों की सुरक्षा हेतु वर्तमान “वन्यजीव अभयारण्य” की भांति मौर्यकाल में भी अभयवनों की अवधारणा प्रचलित थी। इन अभयारण्यों में निवास करने वाले पशुओं को मारना राजाज्ञा द्वारा निषिद्ध था। इनमें मृग, गैंडा, भैसा आदि पशु तथा मोर (Peacock) जैसी पक्षी तथा मछलियाँ शामिल थी।
  5. मौर्यकालीन कलाकृतियों में भी जिस प्राकृतिक वातावरण का भाव प्रकट किया गया है उससे तत्कालीन कलाकारों की पर्यावरण के प्रति सकारात्मक संवेदना का रूप स्पष्टत: परिलक्षित होता है। ऐसा प्रतीत होता है कि पर्यावरण के प्रति कलाकार की अनुभूति अत्यंत विलक्षण थी, जिसे उन्होंने चित्रकला, मूर्तिकला एवं स्थापत्य कला के माध्यम से सजीवता प्रदान कर आम जन तक को महसूस कराने का सफल प्रयास किया है। इस प्रकार मौर्यकालीन कला का स्वरूप काल्पनिक न होकर प्राकृतिक कहा जा सकता है।

मार्शल ने कहा है कि…

“सिंह-स्तम्भ में शिल्पी ने सिंहों की फूली नसों एवं मांसपेशीयों में तनाव उकेरकर जिस प्राकृतिक स्वरूप को अपना लक्ष्य बनाया है, इससे स्पष्ट होता है कि उन्होंने प्रकृति के द्वारा ही ये संवेदनाएँ अर्जित की है। ”अशोक के स्तम्भों पर सिंह, वृषभ, गज, अश्व पशुओं और पद्म (कमल) का अंकन प्रतीकात्मक रूप से भगवान बुद्ध के जीवन की घटनाओं की अभिव्यक्ति से संबंधित है,

किन्तु प्रत्यक्ष रूप में यह प्रकृति और पर्यावरण का भी अनूठा उदाहरण है, जिसके माध्यम से आमजन भी उनके महत्व को समझ सके। इस प्रकार आज से लगभग 2300 वर्ष पूर्व स्थापित मौर्य साम्राज्य ने वन तथा वन्यजीव संरक्षण हेतु आधिकारिक रूप से प्रयास किये।

उल्लेखनीय है कि उस युग का परिचय आज की दुर्लभ वन्यजीव प्रजातियों के विलुप्त होने, जैव विविधता को बनाये रखने, जैव श्रृंखला को बनाये रखने तथा जीवों के आवास हेतु विस्तृत वन क्षेत्रों की उपलब्धता सुनिश्चित करने जैसी गंभीर चुनौतियों से नहीं था।

अत: मौर्य साम्राज्य की संरक्षण नीति राज्य की आय हेतु वनों तथा वन्यजीवों की उपयोगिता तथा अहिंसा के पवित्र विचार से प्रेरित थी। तथापि संरक्षण के मौर्यकालीन प्रयास अभयवन जैसी अवधारणाओं के साथ आज भी प्रासंगिक है।

  • वर्ष 1992 में भारत सरकार द्वारा हाथियों के संरक्षण हेतु परियोजना “गजतमे” प्रारम्भ किया गया। यह गजतमे शब्द प्राकृत-पालि भाषा का शब्द है, जो चक्रवर्ती सम्राट अशोक के कालसी शिलालेख से लिया गया है।
  • इन सब बातों से प्रेरित होकर अनेक पर्यावरणविद् जैसे सुन्दरलाल बहुगुणा ने पर्यावरण की रक्षा हेतु अक्सर चक्रवर्ती सम्राट अशोक का उदहारण दिया है। वंदना शिवा, जिन्होनें प्राचीन भारतीय जड़ी-बूटियों का पश्चिम जगत द्वारा पेटेंट के विरुद्ध लडाइयां लड़ी हैं, उन्होंने अशोक के इसी सिद्धांत “सभी जड़ी बूटियां एवं चिकित्सीय पौधों का उपयोग समस्त मानव जाति के लिए मुफ्त में होना चाहिए” को आधार बनाया।
  • सभी लोगों को आज के आधुनिक युग में भी पर्यावरण के संरक्षण व पशु -पक्षियों के अकारण वध न करने के लिए दृढ़ संकल्पित होने की जरूरत है। जिससे पेड़-पौधों और पशु-पक्षियों के बीच संतुलन बना रहे। जिससे आने वाली पीढ़ियों को प्राकृतिक संसाधनों की कमी न हो।

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