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सूरदास का जीवन परिचय – Surdas Ka Jivan Parichay

सूरदास :- कृष्ण – भक्त शाखा के कवियों में अष्टछाप के कवि ही प्रधान है और उनमे भी श्रेष्ठतम कवि हिंदी सहित्य के सूर्य सूरदास जी है सूरदास जी वात्सल्य रस के “सम्राट” माने जाते है |

आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के अनुसार – ‘जयदेव की देववाणी की स्निग्ध पीयूषधारा, जो काल की कठोरता में दब गयी थी अवकाश पाते ही लोकभाषा की सरलता में परिणत होकर मिथिला की अमराइयों में विद्यापति के कोकिल – कंठ से प्रकट हुई और आगे चलकर ब्रज के कुंजो के बीच फैलकर मुरझाये मनो को सीचने लगी |आचार्यो की छाप लगी हुई आठ वीणाएँ श्री कृष्णा की प्रेम – लीला का कीर्तन कर उठी, जिनमे सबसे ऊँची और मधुर क्षंकार अन्धे कवि “सूरदास” की वीणा की थी |

Surdas Ka Jivan Parichay
Surdas Ka Jivan Parichay

महाकवि सूरदास के लिए इससे श्रेष्ठ कान्यात्मक उक्ति दूसरी नहीं हो सकती | सूरदास जी ने अपनी वीणा का आश्रय लेकर जो कुछ भी गाया, उसके स्वर जन्म – जन्मान्तर तक भारतीय लोक – जीवन और संस्कृति में व्याप्त रहेगे | हिन्दी साहित्य के भक्तिकाल की सगुणोपासक धारा की कृष्णाश्रयी शाखा के प्रमुख कवि महात्मा सूरदास जी का अपना विशिष्ठ स्थान है | इनकी कृति सूरसागर हिन्दी साहित्य का “गौरव – ग्रन्थ” है |

सूरदास का जीवन परिचय – Surdas Ka Jivan Parichay

नामसूरदास (Surdas)
जन्मसंवत् 1535 वि० (सन् 1478 ई० )
जन्म – स्थानरुनकता
मृत्युसं० 1640 वि० (सन् 1583 ई०)
मृत्यु – स्थानपारसौली
पिता का नामपं० रामदास सारस्वत
माता का नामकोई साक्ष्य – प्रणाम प्राप्त नहीं
गुरुस्वामी बल्लभाचार्य
भाषाबज्राभाषा, अवधी, संस्कृत, फारसी
कृतियाँसूरसागर, सूर- सारावली, साहित्य – लहरी

Surdas Ka Jivan Parichay – Surdas Biography in Hindi

सूरदास का प्रारम्भिक जीवन

कविकुल – चूड़ामणि महाकवि सूरदास जी वात्सल्य के अप्रतिम कवि है | कहा जाता है कि सूरदास जन्मान्ध थे | भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने भी इन्हें जन्मान्ध बताया है – “वह इस असार संसार को न देखने के वास्ते आँखे बन्द किये थे |” किन्तु सूरदास जन्मान्ध थे या नहीं इस सम्बन्ध में अनेक मत है | कुछ लोगो का कहना है कि प्रकृति तथा बाल – मनोवृत्तियों एवं मानव स्वभाव का जैसा सूक्ष्म और सुन्दर वर्णन सूरदास ने किया , वैसा कोई जन्मान्ध कदापि नहीं कर सकता |

भगवद् भक्ति की इच्छा से सूर अपने पिता की अनुमति प्राप्त कर यमुना के तट पर स्थित गऊ घात पर रहने लगे | सूरदास जी वल्लभाचार्य के शिष्य थे और उनके साथ ही मथुरा के गऊघाट पर श्रीनाथ जीके मंदिर में रहते और शिक्षा ग्रहण करते थे | सूरदास जी का विवाह भी हुआ था तथा विरक्त होने से पहले ये अपने परिवार के साथ रहा करते थे | पहले वे विनय के पद गया करते थे, किन्तु बल्लभाचार्य के संपर्क में आकर कृष्ण – लीला गान करने लगे | इनके जन्म एवं स्थान आदि को पद्य में इस प्रकार एक साथ समेटा जा सकता है –

रामदास सुत सूरदास ने, जन्म रुनकता ने पाया |
गुरु बल्लभ उपदेश ग्रहण कर, कृष्णभक्ति सागर लहराया ||

कहा जाता है कि सूरदास से एक बार मथुरा में तुलसीदास की भेंट हुई थी और दोनों में प्रेम-भाव भी बढ़ गया था | सूर से प्रभावित होकर ही तुलसीदास में ‘श्रीकृष्णा – गीतावली’ की रचना की थी | अपनी अनुपम शक्ति के लिए ये दूर – दूर तक प्रसिध्द हो गये | तानसेन से सूरदास का यश सुनकर अकबर उनसे मिलने आये और उनके भक्ति – पदों को सुनकर बहुत प्रभावित हुए |

जन्म – स्थान

हिन्दी साहित्याकाश के सूर्य, सूरदास जी का उदय संवत् 1535 वि० (सन् 1478 ई० ) में आगरा से मथुरा जाने वाली सड़क पर स्थित ‘रुनकता‘ नामक गाँव में हुआ था |

माता – पिता

महाकवि सूरदास जी के पिता का नाम पं० रामदास सारस्वत था | तथा माता के नाम के सम्बन्ध में कोई साक्ष्य – प्रणाम प्राप्त नहीं है |

सूरदास के गुरु

शिरोमणि सूरदास जी ने दीक्षा गुरु स्वामी बल्लभाचार्य जी थे |

सूरदास की शिक्षा

महाकवि सूरदास जी ने अपने गुरु बल्लभाचार्य जी से अनेक विषयों का ज्ञान प्राप्त किया | सूरदास जी को अनेक भाषाओ का ज्ञान था जैसे – बज्राभाषा, अवधी, संस्कृत, फारसी आदि |

“वात्सल्य सम्राट” के रूप में सूरदास जी का परिचय

वात्सल्य – वर्णन में सुर भारतीय ही नहीं, विश्व – साहित्य में अतुलनील है | हिन्दी साहित्य में सुर का वात्सल्य – वर्णन अव्दितीय है | लाला भगवानदीन ने कहा है कि – ‘सूरदास ने बाल-चित्रण में कमाल कर दिया है | यहाँ तक कि हिन्दी के सर्वेश्रेष्ठ कवि गोस्वामी तुलसीदास जी भी इस विषय में इनकी समता नहीं कर सकें |’ हिन्दी साहित्य में विस्तृत रूप में वात्सल्य रूप की चर्चा सर्वप्रथम महाकवि सूरदास ने की |वास्तव में वात्सल्य – रस – सूर की देन है या इसे हम यूँ भी कह सकते है कि सूर और वात्सल्य एक – दुसरे के पूरक है |

पुष्टिमार्गीय साधना में बाल – भाव की उपासना को विशेष महत्व दिया है | श्रीकृष्ण की बाल – लीला के बहाने सूरसागर में वात्सल्य – रति के अनेक ललित – मोहक चित्र सूरसागर में गुम्फित हुए है | इन चित्रों में बाल – मनोविज्ञान की मोहक व्यंजना हुई है | ऐसे चित्र नन्द – यशोदा की वत्सल रवि के लिए उदीपन की भूमिका प्रस्तुत करते है | ‘मैया कबहीं बढैंगी चोढी’, उमनि उगमन पगनि डोलत, धूरि धूसर अंग’ और मैया मोंहि दाऊ बहुत खिझायौ’ जैसे पद शब्द चित्रों की एक श्रृंखला – सी प्रस्तुत कर देते है | बाल – विनोद यशोदा के मातृ – ह्रदय में शिशु – स्नेह की पयस्विनी प्रवाहित कर देते है |

मातृह्दय की चिन्ताओं, लालसाओं, आकांक्षाओं , आशंकाओं तथा उत्फुल्लताओ के अनेक रुचिर – परिपूर्ण बिम्ब सूर ने खचित किये है | बालकृष्ण के ललित – ललाम चित्रों की जो मनोहर वीथिका वात्सल्य के उदीपन रूप में सज गयी है वह अदभुत आकर्षक और चिर नवीन है | अंत में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के साथ हम भी कहने की अनुमति चाहते है ”सचमुच वात्सल्य के क्षेत्र का जितना उद्धाटन सूर ने अपनी बन्द आँखों से किया है, वैसा किसी अन्य कवि ने नहीं किया वे वात्सल का कोना – कोना झाँक आये थे |” इस प्रकार हम कह सकते है कि सूरदास जी ‘वात्सल – सम्राट’ है |

मृत्यु – स्थान

सूरदास जी को अपने अन्तिम समय का आभास हो गया था | एक दिन ये श्रीनाथ जी के मंदिर में आरती करके पारसौली चलेगे वही पर सं० 1640 वि० (सन् 1583 ई०) में इनकी जीवन – लीला समाप्त हो गयी |

सूरदास का साहित्यिक – व्यक्तित्व

सूर हिंदी साहित्य के अनुपम कवि है | इनका काव्य भाव और कला दोनों ही पक्षों की दृष्टि से उच्चकोटि का काव्य है | सूरदास जी कवि सम्राट है और श्रृंगार रस के श्रेष्ठतम कवि है सूर भक्ति काल की कृष्णाश्रयी शाखा के प्रमुख एवं प्रतिनिधि कवि है | हिन्दी काव्य – जगत में सूरदास कृष्णभक्ति की अगाध एवं अनन्त भावधारा को प्रवाहित करने वाले कवि माने जाते है | इनके काव्य का मुख्य विषय कृष्णभक्ति है | इनका काव्य ‘श्रीमद्भागवत‘ से अत्याधिक प्रभावित रहा है किन्तु उसमे इनकी विलक्षण मौलिक प्रतिभा के दर्शन होते है |

अपनी रचनाओ में सूरदास ने भावपक्ष को सार्वाधिक महत्व दिया है | इनके काव्य में बाल-भाव एवं वात्सल्य भाव की जिस अभिव्यक्ति के दर्शन होते है उसका उदाहरण विश्व – साहित्य में अन्यत्र प्राप्त करना दुर्लभ है | ‘भम्ररगीत‘ में इनके विरह वर्णन की विलक्षणता भी दर्शनीय है | सूरदास के ‘भम्ररगीत‘ में गोपियों एवं उध्दव के संवाद के माध्यम में प्रेम , विरह ज्ञान एवं भक्ति का जो अद्भुत भाव व्यक्त हुआ है वह इनकी महान काव्यात्मक प्रातिभा का परिचय देता है | सूरदास जी अष्टछाप एवं भक्तिकाल के श्रेष्ठ कवि है |

सूरदास की प्रमुख रचनाएँ

भक्ति शिरोमणि सूरदास ने लगभग सवा – लाख पदों की रचना की थी | ‘नागरी प्रचारिणी सभा‘ , ‘काशी‘ की खोज तथा पुस्तकालय में सुरक्षित नामावली के आधार पर सूरदास जी के ग्रन्थो की संख्या 25 मानी जाती है किन्तु उनके तीन ग्रन्थ ही मुख्य रूप से उपलब्ध हुए है –

1. सूरसागर:-

सूरदास द्वारा रचित ‘सूरसागर‘ इनकी प्रमुख्य रचना है | सूरसागर से ही ये जगत – विख्यात हुए है सूरसागर एकमात्र ऎसी कृति है जिसे सभी विध्दानो ने प्रमाणिक मन है इसके सवा लाख पदों में से केवल 9 – 10 हजार पद ही उपलब्ध हो पाए है ‘सूरसागर’ पर ‘श्रीमद्भागवत‘ का प्रभाव है | सम्पूर्ण ‘सूरसागर‘ एक गीतिकाव्य है |

2. सूर- सारावली:-

यह ग्रन्थ अभी तक विवादास्पद स्थिति में है , किन्तु कथावस्तु , भाव, भाषा, शैली और रचना की दृष्टि से निस्सन्देह यह सूरदास की प्रामाणिक रचना है इसमे 1107 छन्द है |

3. साहित्य – लहरी:-

साहित्यलहरी‘ में सूरदास जी के 118 दृष्टकूट – पदों का संग्रह है अत: हम इनकी रचनाओ के सम्बन्ध में निम्न दोहा कह सकते है –

सूरसागर, साहित्य – लहरी, सूर की सरवाली |
श्रीकृष्ण के बाल – छवि पर, लेखनी अनुपम चली ||

इसके अतरिक्त ” गोवर्धन – लीला,” “नाग – लीला पद – संग्रह एवं “सूर – पच्चीसी” ग्रन्थ भी प्रकाश में आये है |

भाषा – शैली

हिंदी साहित्याकाश के सूर्य , प्रज्ञाचक्षु सूरदास जी ने अपने दृदयोद्गारी की अभिव्यक्ति के लिए कोमलकान्त पदावली से युक्त ब्रजभाषा का प्रयोग किया है जो अपने माधुर्य बुध के लिए प्रसिध्द है | “सूर और उनका साहित्य” नामक पुस्तक में महाकवि सूरदास की भाषा के सम्बन्ध में लिखा गया है – “जो कोमलकान्त पदावली , भावानुकूल शब्द – चयन, सार्थक अलंकार – योजना , धारावाही प्रवाह , संगीत्मकता और सजीवता सूर की भाषा में है उसे देखकर तो यही कहना पड़ता है कि सूर ने ही सर्वप्रथम ब्रजभाषा को साहित्यिक रूप दिया” व्याकही – कही अवधी , संस्कृत , फारसी आदि भाषाओ के शब्दों का प्रयोग भी मिलता है किन्तु इनकी भाषा सर्वत्र सरस , सरल एवं प्रवाहपूर्ण है | सूर ने मुक्तक काव्य – शैली को अपनाया है | तथा – वर्णन में वर्णनात्मक शैली का प्रयोग हुआ है | दृष्टकूट पदों में क्लिष्टता का समावेश हो गया है | समग्रत: उनकी शैली सरल एवं प्रभावशाली है |

सूरदास का हिन्दी – साहित्य में स्थान

महाकवि सूरदास हिन्दी के भक्त कवियों में शिरोमणि माने जाते है | भाषा की दृष्टि से तो संस्कृत साहित्य में जो स्थान वाल्मीकि का है , वही ब्रजभाषा के साहित्य में सूरदास का है | अपने सीमित क्षेत्र में जिस चातुर्य और कौशल से कवि शिरोमणि सूरदास ने भावो की व्यंजना की है उसका मूल्यांकन आचार्यो ने खूब किया और उनका सारा साहित्य आलोचना की कसौटी पर खरा उतरा | सूर की काव्य – रचना इनती काव्यांगपूर्ण है कि आगे आने वाले कवियों की श्रृंगार और वात्सल्य पर आधारित रचनाएं सूर की जूठन – सी जान पड़ती है | इसलिए उन्हें हिन्दी काव्य – जगत का सूर (सूर्य) कहा गया है | निश्चय ही सूरदास हिन्दी साहित्याकाश के सूर्य है , जैसे कि निम्न दोहे से स्पष्ट है –

सूर – सूर तुलसी शशि , उडुगन केशवदास |
अब के कवि खगोत सम , जहँ – तहँ करत प्रकास ||

‘अस्तु, हिन्दी साहित्य में सूर का स्थान सर्वोच्च है|

महात्मा सूरदास जी की अनुपम लेखनी का स्पर्श पाकर हिन्दी – साहित्य धन्य हो गयी |

संबंधित प्रश्न (FAQs) – Surdas Ka Jivan Parichay

Q.1 सूरदास का जन्म स्थान?

Ans. सूरदास जी का उदय संवत् 1535 वि० (सन् 1478 ई० ) में आगरा से मथुरा जाने वाली सड़क पर स्थित ‘रुनकता‘ नामक गाँव में हुआ था |

Q.2 सूरदास की पत्नी का नाम क्या था?

Ans. सूरदास की पत्नी के नाम के सम्बन्ध में हिंदी साहित्य जगत में कोई साक्ष्य प्रमाण प्राप्त नही है |

Q.3 सूरदास की रचनाएँ?

Ans. सूरसागर, सूर- सारावली, साहित्य – लहरी

Q.4 सूरदास की मृत्यु कब हुई?

Ans. सं० 1640 वि० (सन् 1583 ई०)|

Q.5 सूरदास के गुरु कौन थे?

Ans. सूरदास जी ने दीक्षा गुरु स्वामी बल्लभाचार्य जी थे |

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