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Tulsidas Ji Ke Dohe – तुलसीदास जी के दोहे संदर्भ, प्रंसग, व्याख्या, काव्य सौन्दर्य सहित

इस आर्टिकल में हम Tulsidas Ji Ke Dohe (तुलसीदास जी के दोहे) पढेंगे, तो चलिए विस्तार से पढ़ते हैं तुलसीदास जी के दोहे संदर्भ, प्रंसग, व्याख्या, काव्य सौन्दर्य सहित – बहुत ही सरल भाषा में लिखा गया है जो परीक्षा की दृष्टि से बहुत ही उपयोगी है। सबसे पहले हम तुलसीदास जी के बारे में जान लेते है :

गोस्वामी तुलसीदास जी (Tulsidas) : रामभक्ति शाखा के कवियों में गोस्वामी तुलसीदास सर्वश्रेष्ठ कवि माने जाते हैं। इनका प्रमुख ग्रन्थ “श्रीरामचरितमानस” (Ramcharitmanas) भारत में ही नहीं वरन् सम्पर्ण विशव में विख्यात है। इनका जन्म अमुक्तमूल नक्षत्र में हुआ था। इनका जब जन्म हुआ तब ये पाँच वर्ष के बालक मालूम होते थे, दाँत सब मौजूद थे और जन्मते ही इनके मुख से राम का शब्द निकला। आश्चर्यचकित होकर इन्हें राक्षस समझकर माता-पिता ने इनका त्याग कर दिया।

तुलसीदास जी का जन्म विक्रमी संवत् 1554 (सन् 1497 ई०) बताया जाता है। तुलसीदास जी के माता का नाम श्रीमती हुलसी एवं पिता का नाम श्री आत्मा राम दुबे था। सवत् 1680 पि० (सन् 1623 ई०) में श्रावन कृष्ण पक्ष तृतीया शानिवार को असीघाट पर तुलसीदास राम – राम कहते हुए परमात्मा में विलीन हो गये। तो आइए जानते हैं तुलसीदास जी के दोहे – Tulsidas Ke Dohe के बारे में –

Tulsidas Ji Ke Dohe

Tulsidas Ji Ke Dohe – तुलसीदास जी के दोहे संदर्भ, प्रंसग, व्याख्या, काव्य सौन्दर्य सहित

तुलसीदास जी का दोहा नंबर 1 – Tulsidas Ji Ke Dohe 1

कबहुँक हौं यहि रहनि रहौंगो।
श्री रघुनाथ-कृपालु-कृपा तें संत सुभाव गहौंगो।।
जथालाभ संतोष सदा काहू सों कछु न चहौंगो।।
परहित-निरत निरंतर मन क्रम बचन नेम निबहौंगो।।
परुषबचन अतिदुसह स्रवन सुनि तेहि पावक न दहौंगो।
बिगत मान, सम सीतल मन, पर-गुन, नहिं दोष कहौंगो।।
परिहरि देहजनित चिंता, दुख सुख समबुद्धिं सहौंगो।
तुलसिदास प्रभु यहि पथ रहि अबिचल हरि भक्ति लहौंगो।।

संदर्भ:-

प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक काव्यांजलि में महाकवि तुलसीदास द्वारा रचित विनय-पत्रिका द्वारा लिया गया है।

प्रंसग:-

इसमे कवि ने गुरुजनों के गुणों को अपने में समाहित करने की इच्छा प्रकट की है।

व्याख्या:-

तुलसीदास जी कहते है कभी भी मैं अपने गुरुजनों की तरह हो पाऊगाँ या नहीं। क्या रघुनाथ जी की दया या कृपा से मैं संतो के स्वभाव का बनूगाँ। जितना हमें मिल जाए उतने में संतुष्ट रहूँगा और किसी से कुछ मिलने का इच्छा न करूँगा। तथा हमेशा लोगों की सेवा के लिए तैयार रहूँगा और मन, कर्म, वचन से निभाऊँगा तथा कानो से कठोर वचन सुनने पर क्रोध नही करुगाँ अपने मन को शांत और शीतल रखूँगा। तथा दूसरो के गुणों को बड़ाई करूँगा और उनके दोषों को नही कहुँगा। शरीर की चिन्ता न करके सुख – दुःख से समान रहूँगा, हे प्रभु, क्या तुलसीदास इस पथ पर चलकर अपना मनोरथ पूरा कर पाएँगा।

काव्य सौन्दर्य:-

  • भाव स्पष्टीकरण – इसमे तुलसीदास जी ने सन्तो के स्वभाव एवं आचरण का सुन्दर वर्णन किया था।
  • भाषा – ब्रज
  • शैली – मुक्तक
  • छंद – गेयपद
  • रस – शांत
  • शब्द शक्ति – अभिधा
  • गुण – प्रसाद

तुलसीदास जी का दोहा नंबर 2 – Tulsidas Ji Ke Dohe 2

ऐसी मूढ़ता या मन की।
परिहरि रामभगति-सुरसरिता आस करत ओसकन की।।
धूमसमूह निरखि चातक ज्यों तृषित जानि मति घन की।
नहिं तहँ सीतलता न बारि,पुनि हानि होति लोचन की।।
ज्यों गच-काँच बिलोकि सेन जड़ छाँह आपने तन की।
टूटत अति आतुर अहार बस छति बिसारि आनन की।।
कहँ लौं कहौं कुचाल कृपानिधि जानत हौ गति मन की।
तुलसिदास प्रभु हरहु दुसह दुख,करहु लाज निज पन की।।

संदर्भ:-

प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक काव्यांजलि में महाकवि तुलसीदास द्वारा रचित विनय-पत्रिका द्वारा लिया गया है।

प्रंसग:-

इस व्याख्या में तुलसीदास जी मानव की मूर्खता के बारे में बताते है कि मनुष्य भगवान की भक्ति छोड़कर विनाश की ओर बढ़ जाता है।

व्याख्या:-

तुलसीदास जी कहते है कि इस मन की एसी मूर्खता है कि वह भगवान श्री राम जैसी भक्ति गंगा को त्यागकर ओस की बूँदो को पाने की इच्छा करता है। अथवा भक्ति को छोड़कर क्षणिक सुख की ओर दौड़ता है। जिस प्रकार प्यासा पपीहा बहुत धुआँ देखकर उसे बादल समझ लेता है। किन्तु वहाँ उसे न ही शीतलता मिलती है और न ही पानी तथा धुआँ से वह अपनी आँखे मुक्त में फोड़ लेता है। जैसे मूर्ख बाज काँच के फर्श में अपने ही शरीर को देखकर यह समझता है कि यह शिकार उसका है और उसे पाने के लिए उसपे चोंच मारता है तथा उसकी चोंच टूट जाती है इसका मतलब दुःख के सिवाय सुख तनिक भी नही है। हे कृपा के भण्डार मैं इस कुचाल का कहाँ तक वर्णन करूँ आप तो अपने भक्तों की दशा जानते ही है। क्योकि आप अन्तर्यामी है, हे प्रभु, तुलसी का दारूप दुःख दूर करके अपनी प्रतिज्ञा की रक्षा कीजिए क्योकि आपका यह काम है कि आप अपने शरण में आने वाले की रक्षा करें।

काव्य सौन्दर्य:- अज्ञानवश होकर जब मनुष्य स्वार्थ सिध्दि करता है तो हमेशा हानि ही होती है।

  • भाषा – ब्रज
  • शैली – मुक्तक (गेयपद)
  • छंद – गेयपद
  • रस – शांत
  • शब्द शक्ति – लक्षणा
  • गुण – प्रसाद
  • अलंकार – भ्रान्तिमान, रूपक

तुलसीदास जी का दोहा नंबर 3 – Tulsidas Ji Ke Dohe 3

हे हरि ! कस न हरहु भ्रम भारी ?
जद्यपि मृषा सत्य भासै जब लगि नहिं कृपा तुम्हारी।।
अर्थ अबिद्यमान जानिय संसृति नहिं जाइ गोसाईं।
बिनु बाँधे निज हठ सठ परबस पर्यो कीर की नाई।।
सपने ब्याधि बिबिध बाधा भइ, मृत्यु उपस्थित आई।
बैद अनेक उपाय करहिं, जागे बिनु पीर न जाई।।
स्रुति-गुरु-साधु-सुमृति-संमत यह दृश्य सदा दुखकारी
तेहि बिन तजे, भजे बिन रघुपति बिपति सकै को टारी ?।।
बहु उपाय संसार – तरन कहँ बिमल गिरा स्रुति गावै।
तुलसिदास ‘मैं-मोर’ गए बिनु जिय सुख कबहुँ न पावै।।

संदर्भ:-

प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक काव्यांजलि में महाकवि तुलसीदास द्वारा रचित विनय-पत्रिका द्वारा लिया गया है।

प्रंसग:-

प्रस्तुत पंद्याश में कवि गोस्वामी तुलसीदास जी अपने आराध्य प्रभु श्री राम चन्द्र जी से अपने मन के भ्रम को मिटाने की विनती करते है।

व्याख्या:-

हे प्रभु क्यों आप मेरे इस भारी भ्रम को दूर नहीं करते है यद्यपि यह संसार मिथ्या है। जब तक आपकी कृपा नही होगी यह सनार ऐसा ही प्रतीत होगा। इन्द्रियों द्वारा प्राप्त यह सुख क्षणिक है अर्थात् इन्द्रियों द्वारा प्राप्त यह सुख किसी काम का नही मिलती है। बिना किसी के बाँधे मैं उस तोते की तरह फँस गया हूँ जैसे वह तोता दाने की लालच में आकर शिकारी के जाल में फँस जाता है। मुझे सपने में अनेक बाधाओं ने घेर लिया है और ऐसा लग रहा है कि मेरी मृत्यु पास आ गयी है। बैद अनेको तरह के उपचार कर रहे हैं लेकिन जागे बिना यह कष्ट दूर नही होगा। जिस प्रकार से, जब हमे नींद मे कोई सपना दिखता है तो उससे नींद से जागने पर ही वह कष्ट दूर होता है। उसी प्रकार इस संसार की विषय-वासनाओं से मुक्ति पाने के लिए इससे बाहर निकलना पड़ेगा। वेद, गुरु, साधु जी के द्वारा इस संसार में जो सुख दिखाई देने वाली वस्तु है। वह सदा दु:खकारी ही सिद्ध होती है। (अर्थात् मोह – माया विषय-वासना सदैव दुःख देने वाली है) इन सब चीजो को छोड़े बिना कौन इन सब से छुटकारा पा सकता है भगवान रघुपति की भक्ति के बिना कोई नही मिटा सकता। संसार से छुटकारा पाने के लिए शास्त्रों में अनेक सुन्दर -सुन्दर उपाय बताएँ गये है। किन्तु तुलसीदास जी कहते हैं कि मैं और मेरा कि भावना केगये बिना कही सुख नही मिलेगाँ।

काव्य सौन्दर्य:-

  • भाषा – ब्रज
  • शैली – मुक्तक
  • छंद – गेयपद
  • रस – शांत
  • शब्द शक्ति – लक्षणा तथा अभिधा
  • गुण – प्रसाद और माधुर्य
  • अलंकार – भ्रान्तिमान, विरोधाभास और अनुप्रास

तुलसीदास जी का दोहा नंबर 4 – Tulsidas Ji Ke Dohe 4

अब लौं नसानी अब न नसैहौं।
राम कृपा भवनिसा सिरानी जागे फिर न डसैहौं । ।
पायो नाम चारु चिंतामनि, उर-कर ते न खसैहौं।
स्याम रूप सुचि रुचिर कसौटी चित कंचनहिं कसैहौं
परबस जानि हँस्यो इन इंद्रिन, निज बस ह्वै न हँसैहौं।
मन-मधुकर पन करि तुलसी रघुपति पद-कमल बसैहौं।।

संदर्भ:-

प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक काव्यांजलि में महाकवि तुलसीदास द्वारा रचित विनय-पत्रिका द्वारा लिया गया है।

प्रंसग:-

तुलसीदास जी इस पद्यांश में प्रतिज्ञा करते है कि अब तक मैंने अपना जीवन सांसरिक विषय वासनाओं में नष्ट किया। किन्तु अब भगवान की भक्ति के सिवाय कुछ नही करूँगा।

व्याख्या:-

अब तक तो मेरी करनी बिगड़ गयी थी लेकिन अब आगे से संभाल जाऊँगा अब तक तो मैंने अपने जीवन को नष्ट कर लिए लेकिन आगे से ऐसा नही करूँगा क्योकि मैं समझ गया हूँ। रघुनाथ जी की दया संसार रूपी रात्री बीत चुकी है। अब जागने पर कभी बिछौना न बिछौऊँगा अर्थात् पुन: सोने की तैयारी नही करूंगा अर्थात् सांसरिक मोह -माया के चक्र में नही पडूँगा। क्योकि मुझे चिंतामणि प्राप्त हो गयी है। उसे सदा अपने हृदय से लगाए रखूगाँ श्रीराम जी का जू भगवान श्रीकृष्ण जैसा सुंदर रूप है। उसकी कसौटी बनकर उस पर मैं अपने चिन्तारूपी सोने को कसूंगा अर्थात् यह देखूँगा की ईश्वर की भक्ति में मेरा मन कहाँ तक जाता है। जब तक मै अपने मन का गुलाम रहा तब तक इन्द्रियों ने मेरी खूब हँसी उड़ाई तथा मै अपने मन और इन्द्रियों को अपने वंश में कर लूगाँ जिससे हँसी न हो मैं अपने मन को इस प्रकार रघुनाथ जी की भक्ति में लगा दूँगा जैसे भौंरा इधर – उधर फूलो पर न जाकर प्रणपूर्वक अपने को कमल कोस में बसा लेता है। इसका मतलब अपने मन को सब जगह से मोड़कर रघुनाथ जी के चरणों में सेवक बनूँगा।

काव्य सौन्दर्य:- तुलसीदास जी जगत की प्रति विरिक्त और श्रीराम के प्रति अनुराग मुखर हुआ है।

  • भाषा – ब्रज
  • शैली – मुक्तक
  • छंद – गेयपद
  • रस – शांत
  • शब्द शक्ति – लक्षणा
  • गुण – प्रसाद
  • अलंकार – रूपकऔर अनुप्रास

तुलसीदास जी का दोहा नंबर 5 – Tulsidas Ji Ke Dohe 5

बालधी विसाल विकराल ज्वाल-जाल मानौं,
लंक लीलिबे को काल रसना पसारी है।
कैधौं ब्योमबीथिका भरे हैं भूरि धूमकेतु,
बीररस बीर तरवारि सी उधारी है ।।
तुलसी सुरेस चाप, कैधौं दामिनी कलाप,
कैधौं चली मेरु तें कृसानु-सरि भारी है।
देखे जातुधान जातुधानी अकुलानी कहैं,
“कानन उजार्यो अब नगर प्रजारी है”।।

संदर्भ:-

प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक काव्यांजलि में संकलित तुलसीदास जी के कवितावली के लंका-दहन कविता शीर्षक से लिया गया है।

प्रंसग:-

इसमें तुलसीदास जी ने लंका – दहन के समय हनुमान जी के द्वारा किए गए घटनाओं का सुंदर वर्णन करते हैं ।

व्याख्या:-

कवि कहते हैं कि हनुमान जी की पूंछ पर बहुत लम्बी भयानक है तथा उसने अग्नि का पुंज होने के कारण ऐसा प्रतीत होता है मानो काल ने लंका को निकलने के लिए अपनी जीभ बाहर निकाल ली हो। तथा आग की कई लपटों के कारण कभी ऐसा लगता है कि मानो आकाश तारों से भरा हो तथा यह लंका के लिए शुभ संकेत नहीं है। अथवा वीर रस स्वयं ही प्रकट हो गया हो और उसने अपनी तलवार निकाल ली हो। हनुमान जी की पूंछ देखकर ऐसा लगता था कि यह कोई इंद्रधनुष या बिजली हो या फिर ऐसा प्रतीत होता मानो सुमेरु पर्वत से आग की नदी बह चली हो। यह सब देखकर वहां की राक्षस और राक्षसनियाँ डर जाती हैं और कहती हैं कि इस वानर ने पहले अशोक वाटिका उजाड़ी अब लंका जला रहा है।

काव्य सौन्दर्य:- हनुमान जी की चलती हुई पूँछ के बारे में कवि ने सूक्ष्मदर्शिता से परिचय दिया है।

  • भाषा – ब्रज
  • शैली – प्रबन्ध
  • छंद – घनाक्षरी
  • रस – भयानक
  • अलंकार – सन्देह, रूपक और अनुप्रास
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