प्रसाद को छायावाद का प्रवर्त्तक क्यों कहा जाता है, समझाइए।

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प्रश्न: प्रसाद को छायावाद का प्रवर्त्तक क्यों कहा जाता है, समझाइए।

अथवा

प्रश्न: हिंदी साहित्य जगत में किस कवि को ‘छायावाद का प्रवर्त्तक’ माना जाता है?

उत्तर: हिंदी साहित्येतिहास के अंतिम कालखण्ड आधुनिक काल के द्वितीय सोपान द्विवेदी युग की स्थूल काव्यात्मकता और इतिवृत्तात्मकता की प्रतिक्रिया के स्वरूप सन् 1918 ई० के आस-पास एक नवीन काव्यधारा का उदय हुआ, जिसे ‘छायावाद‘ की संज्ञा प्रदान की गयी।

प्रसिद्ध समीक्षक डॉ. नगेन्द्र के शब्दों में ‘छायावाद’ की परिभाषा

स्थूल के प्रति सूक्ष्म का विद्रोह ही है। कोई भी नवीन युग स्वत: ही नहीं आ जाता, अपितु वह किसी-न-किसी द्वारा प्रवर्तित किया जाता है। छायावाद का प्रवर्त्तक होने का सौभाग्य प्रेम और सौंदर्य के उत्कृष्ट कवि जयशंकर प्रसाद जी को प्राप्त है

इसे स्पष्ट करते हुए इलाचन्द्र जोशी ने लिखा है— “प्रथम छायावादी कवि उसे माना जाना चाहिए, जिसने छायावादी युग की निश्चित स्थापना हो जाने के पूर्व ही से एकाध छिट – पुट कविता नहीं, बल्कि निरन्तर ऐसी कविताएं लिखी, जिनमें छायावादी प्रवृत्ति के बीच असंदिग्ध रूप से विद्यमान थे।

प्रसाद जी अविवादास्पद रूप से हिंदी के पूर्व सर्वप्रथम छायावादी कवि ठहरते हैं। सन् 1913 – 14 के आस-पास ‘इन्दु’ में प्रतिमास उनकी जिस ढंग की कविताएँ निकलती थी (जो बाद में ‘कानन-कुसुम‘ नाम से प्रकाशित हुई) वे निश्चित रूप से तत्कालीन हिंदी काव्य – क्षेत्र में युग – विवर्तन की सूचक थी। उस नयी शैली के निरंतर विकास की ओर ‘प्रसाद’ जी सतत प्रयन्त्रशील रहे और उस विकास की चरम परिणति ‘कामायनी‘ में हुई……………

आश्चर्य की बात नहीं है कि छायावादी ढंग की सर्वप्रथम स्फुट कविता भी ‘प्रसाद‘ जी द्वारा ही लिखी गयी हो। पर तर्क के लिए यदि मान भी लिया जाय कि उसे शैली की पहली स्फुट कविता किसी दूसरे कवि द्वारा रची गयी, तो भी छायावाद प्रवृत्ति को सर्वप्रथम संयत रूप से प्रवृत्त करने के कारण ‘प्रसाद जी’ ही पहले छायावादी कवि प्रमाणित होते हैं।”

अतः निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि जयशंकर प्रसाद जी छायावाद के प्रवर्त्तक हैं और ‘झरना‘ प्रसाद जी की छायावाद की प्रथम रचना है।

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